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________________ अध्याय ४ सूत्र ४१-४२ ३६९ अर्थ:-ज्योतिषी देवोंकी जघन्य आयु एक पल्योपमके आठवें भाग है ।। ४१ ॥ लौकान्तिक देवोंकी आयु लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषास् ॥ ४२ ॥ अर्थ-समस्त लोकान्तिक देवोकी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु आठ सागरकी है ॥ ४२ ॥ " ' उपसंहार इस चौथे अध्याय तक सात तत्त्वोंमेसे जीव तत्त्वका अधिकार पूर्ण हुआ। . पहिले अध्यायके पहिले सूत्रमे मोक्षमार्गकी व्याख्या करते हुए सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारंभ, होता है. ऐसा-बतलाया है। दूसरे ही सूत्र में सम्यग्दर्शनकी व्याख्या करते हुए बताया है. कि-तत्त्वार्थश्रद्धा सो सम्यग्दर्शन है । तत्पश्चात् चौथे सूत्रमे तत्त्वोंने नाम बतलाये और तत्त्व सात हैं यह बताया । सात नाम होने पर भी, बहुवचनका प्रयोग नही करते हुए 'तत्त्वं' इसप्रकार एक वचनका,प्रयोग किया है-उससे यह मालूम होता है कि इन सातों तत्त्वोंके राग मिश्रित विचारसे ज्ञान करने के बाद भेदका आश्रय दूर करके जीवके त्रिकालिक अमेद ज्ञायक भावका आश्रय करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। ... सूत्र ५ तथा ६ मे बताया है कि इन तत्त्वोंको निक्षेप, प्रमाण तथा नयोके द्वारा जानना चाहिये; इसमे सप्तभंगोका समावेश हो जाता है। इन सबको संक्षेपमे सामान्यरूपसे कहना हो तो तत्वोंका स्वरूप जो अनेकान्तरूप है, और जिसका द्योलक स्याद्वाद है उनका स्वरूप भलीभांति समझ लेना चाहिये। .. . जीवका यथार्थज्ञान करने के लिये स्याद्वाद पद्धतिसे अर्थात् निक्षेप, प्रमाण, नय और सप्तभंगीसे जीवका स्वरूप संक्षेपमें कहा जाता है। उसमे पहिले 'सप्तभंगीके द्वारा जीवका स्वरूप कहा जाता है-सप्तभंगीका स्वरूप जीवमे निम्नप्रकारसे लगाया जाता है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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