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________________ सध्याय ४ सूत्र २५-२६ टीका इन देवोंके ये आठ मूल भेद है और उन आठोंके रहनेके स्थानके बीच के भागमे रहनेवाले देवोंके दूसरे सोलह भेद है। इसप्रकार कुल २४ भेद है इन देवोके स्वर्गके नाम उनके नामके अनुसार ही है । उनमे सभी समान है, उनमे कोई छोटा बडा नही है सभी स्वतन्त्र है उनकी कुल संख्या ४०७८२० है । सूत्रमे पाठ नाम बतलाकर अंतमें 'च' शब्द दिया है उससे यह मालूम होता है कि इन आठ के अतिरिक्त दूसरे भेद भी हैं ॥२५॥ अनुदिश और अनुत्तरवासी देवोंके अवतारका नियम विजयादिषु द्विचरमाः॥ २६ ॥ अर्थ-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और अनुदिश विमानो के अहमिन्द्र द्विचरमा होते हैं अर्थात् मनुष्यके दो जन्म (भव) धारण करके अवश्य ही मोक्ष जाते है ( ये सभी जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं।) टीका १. सर्वार्थसिद्धिके देव उनके नामके अनुसार एकावतारी ही होते हैं । विजयादिकमें रहनेवाले जीव एक मनुष्यभव अथवा दो भव भी धारण करते है। २. सर्वार्थसिद्धिके देव, दक्षिणके छह इन्द्र (-सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, आनत, आरण ) सौधर्मके चारों लोकपाल, सौधर्म इन्द्रको 'शचि' नामकी, इन्द्राणी और लौकान्तिक देव-ये सभी एक मनुष्य जन्म धारण करके मोक्ष जाते हैं [ सर्वा० एटा, पृ० ८७-८८ की फुटनोट ] ॥ २६ ॥ [ तीसरे अध्यायमें नारकी और मनुष्य संबंधी वर्णन किया था और इस चौथे अध्यायमे यहाँ तक देवोंका वर्णन किया । अव एक सूत्र द्वारा तिर्यंचोंकी व्याख्या बतानेके बाद देवोकी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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