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________________ अध्याय ४ सूत्र २१-२२ जो देव सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए हैं वे ही जितने दरजेमें वीतरागभावरूप रहते हैं उतने दरजेमें सच्चे सुखी हैं। सम्यग्दर्शनके बिना कही भी सुखका अंश प्रारंभ नही होता, और इसीलिये ही इसी शास्त्रके पहिले ही सूत्रमे मोक्ष का उपाय बतलाते हुए उसमे सम्यग्दर्शन पहिला बताया है । इसलिये जीवोंको प्रथम ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उपाय करना आवश्यक है। (६)-उत्कृष्ट देवत्वके योग्य सर्वोत्कृष्ट शुभभाव सम्यग्दृष्टिके ही होते है । अर्थात् शुभभावके स्वामित्वके निषेधकी भूमिकामें ही वैसे उत्कृष्ट शुभभाव होते है, मिथ्यादृष्टिके वैसे उच्च शुभभाव नही होते ॥ २१ ॥ वैमानिक देवोंमें लेश्या का वर्णन पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ अर्थ-दो युगलोंमे पीत; तीन युगलोमे पद्म और बाकीके सब विमानोमे शुक्ललेश्या होती है। टीका १३ पहिले और दूसरे स्वर्गमे पीतलेश्या, तीसरे और चौथेमे पीत तथा पद्मलेश्या, पांचवेंसे आठवें तक पद्मलेश्या, नववेसे बारहवें तक पद्म और शुक्ललेश्या और बाकीके सब वैमानिक देवोके शुक्ललेश्या होती है, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानोके देवोके परमशुक्ललेश्या होती है । भवनत्रिक देवोकी लेश्याका वर्णन इस अध्यायके दूसरे सूत्रमें आगया है । यहाँ भावलेश्या समझना चाहिये। २. प्रश्न-सूत्रमे मिश्रलेश्याओका वर्णन क्यो नही किया ? उत्तर---जो मुख्य लेश्याएँ है उन्हे सूत्र में बतलाया है जो गौण लेश्याएँ है उन्हे नही कहा है, गौरण नेश्याओका वर्णन उसीमे गर्भित है। इसलिये वे उसमे अविवक्षितरूपसे है । इस शास्त्रमे सक्षिप्त सूत्ररूपसे मुख्य वर्णन किया है, दूसरा उसमे गभित है । इसलिये यह गभित कथन परम्परा के अनुसार समझ लेना चाहिये ॥ २२॥ ४६
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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