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________________ अध्याय ४ सूत्र २०-२१ टीका स्थिति — प्रायुकर्मके उदयसे जो भवमें रहना होता है उसे स्थिति कहते हैं । ३५५ प्रभाव- - - परका उपकार तथा निग्रह करनेवाली शक्ति प्रभाव है । सुख — सातावेदनीयके उदयसे इन्द्रियोंके इष्ट विषयोंकी अनुकूलता सो सुख है । यहाँ पर 'सुख' का अर्थ बाहरके संयोगकी अनुकूलता किया है, निश्रयसुख ( आत्मोक सुख ) यहाँ नही समझना चाहिये । निश्चयसुख का प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे होता है; यहाँ सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके भेदकी अपेक्षासे कथन नही है किन्तु सामान्य कथन है ऐसा समझना चाहिये । श्रुति – शरीरकी तथा वस्त्र आभूषण आदिकी दीप्ति सो द्युति है । लेश्याविशुद्धि - लेश्या की उज्ज्वलता सो विशुद्धि है; यहाँ भावलेश्या समझना चाहिये । इन्द्रियविषय – इन्द्रियद्वारा ( मतिज्ञानसे) जानने योग्य पदार्थोको इन्द्रियविषय कहते है । अवधि विषय – अवधिज्ञानसे जानने योग्य पदार्थ सो श्रवधिविषय 1120 11 वैमानिक देवोंमें उतरोतर हीनता गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥ अर्थ — गति, शरीर, परिग्रह, और अभिमान की अपेक्षासे ऊपर उ.परके वैमानिक देव हीन होन हैं । टीका १. गति - यहाँ 'गति' का अर्थ गमन है; एक क्षेत्रको छोड़कर अन्य क्षेत्रमे जाना सो गमन (गति) है । सोलहवें स्वर्गसे आगेके देव अपने विमानोंको छोड़ दूसरी जगह नही जाते ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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