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________________ अध्याय ३ सूत्र ३६ धोबी, हजाम, कुम्हार, लुहार, सुनार इत्यादिके कार्य में प्रवीण हों उन्हें शिल्पकर्मआर्य कहते हैं। जो चन्दनादि गंध, घी इत्यादि रस, धान्य, कपास, वस्त्र, मोती-माणिक इत्यादि अनेक प्रकारकी वस्तुओंका संग्रह करके व्यापार करते हैं उन्हे वाणिज्यकर्मआर्य कहते है। ये ६ प्रकारके कर्म जीवकी अविरतदशामें (पहिलेसे चौथे गुणस्थान तक ) होते है इसलिये उन्हे सावद्यकर्मआर्य कहते हैं। विरताविरतरूप परिणत जो श्रावक (पाँचवें गुणस्थानवर्ती ) हैं उन्हे अल्पसावद्यकर्मआर्य कहते हैं। जो सकलसंयमी साधु हैं उन्हें असावद्यकर्ममार्य कहते है । (असावद्यकर्ममार्य और चारित्रयायके बीच क्या भेद है सो बताया जायगा) (४) चारित्रार्य-के दो भेद है-अभिगतचारित्रमार्य और अनभिगतचारित्रआर्य । जो उपदेशके बिना ही चारित्रमोहके उपशम तथा क्षयसे प्रात्माकी उज्ज्वलतारूप चारित्रपरिणामको धारण करें, ऐसे उपशांतकषाय और क्षीणकषायगुणस्थानधारकमुनि अभिगतचारित्रआर्य हैं । और जो अंतरगमें चारित्रमोहके क्षयोपशमसे तथा बाह्यमे उपदेशके निमित्तसे संयमरूप परिरणाम धारण करें वे अनभिगतचारित्रमार्य हैं। असावद्यार्य और चारित्रार्य ये दोनों साधु ही होते हैं, परन्तु वे साधु जब पुण्यकर्मका बंध करते हैं तब (छट्ठ गुणस्थानमे ) उन्हे असावद्यकर्मधार्य कहते हैं, और जब कर्मकी निर्जरा करते हैं तब (छ8 गुणस्थान से ऊपर ) उन्हे चारित्रआर्य कहते हैं। (५ दर्शनार्य के देश मेद हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़ [ इन दश भेद संबंधी विशेष खुलासा मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ६ में से जानना चाहिये ] इसप्रकार अनऋद्धिप्राप्तआर्यके भेदोका स्वरूप कहा । इसप्रकार मार्य मनुष्योंका वर्णन पूरा हुआ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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