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________________ ३६ व्यवहार को स्वरूप सम्यग्दृष्टि जाने, मूढजोव न जान न मान । मूढ जीव बन्ध पद्धतिको साधिकरि मोक्ष कहै, सो वात ज्ञाता माने नाहीं । काहेत, यातें जु बंधके साधते बंध सधै, मोक्ष सधै नाहीं । ज्ञाता कदाचित् बंध पद्धति विचार तब जाने कि या पद्धतिसौ * मेरो द्रव्य अनादि को वंधरूप चल्यो आयो है-अब या पद्धतिसो:मोह तोरिवो है या पद्धतिको राग पूर्वकी ज्यो हे नर काहे करौ ? । छिनमात्र भी बन्ध पद्धतिविष मगन होय नाही सो ज्ञाता अपनो स्वरूप विचारै, अनुभवै, ध्यावै, गाव, श्रवन कर, नवधा भक्ति, तप क्रिया अपने शुद्ध स्वरूपके सन्मुख होइकरि करै । यह ज्ञाताको आचार, याहीको नाम मिश्रव्यवहार । (४) अब हेय ज्ञेय उपादेयरूप ज्ञाताकी चाल ताको विचार लिख्यते हेय-त्यागरूप तो अपने द्रव्यकी अशुद्धता, ज्ञेय-विचाररूप अन्य षद्रव्यको स्वरूप-उपादेय आचरनरूप अपने द्रव्यकी शुद्धता, ताको व्योरी-गुणस्थानक प्रमान हेय ज्ञेय उपादेयरूप शक्ति ज्ञाताकी होय । ज्यों ज्यों ज्ञाताकी हेय ज्ञेय उपादेयरूप वर्धमान होय त्यो त्यो गुणस्थानककी बढ़वारी कही है, गुणस्थानक प्रवान ज्ञान, गुणस्थानक प्रमान क्रिया । तामैं विशेष इतनौ जु एक गुणस्थानकवर्ती अनेक जीव होहिं तो अनेक रूपको ज्ञान कहिए, अनेकरूपकी क्रिया कहिए । भिन्न भिन्न सत्ताके प्रवान करि •-यहाँ सम्यग्दृष्टि जीवको उसको भूमिकाके अनुसार होनेवाले शुभभावको भी वन्ध पद्धति-कही है । बन्धमार्ग,-बन्धका कारण,-बन्धका उपाय और वधपद्धति एकार्थ है। सम्यग्दृष्टि शुभभावको वन्धपद्धतिमें गिनते हैं इससे इनसे लाभ या किंचित् हित मानते नही, और उनका प्रभाव करनेका पुस्पार्थ करता है इसलिये यह बन्धपद्धतिका मोह तोड़कर स्वसन्मुख प्रवर्तनका उद्यम करते हुए शुद्धतामें वृद्धि करने की सीख अपने को दे रहे हैं।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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