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________________ मोक्षशास्त्र अध्याय तीसरा भूमिका इस शास्त्रके पहिले अध्यायके पहिले सूत्र में निश्चय 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है' यह बतलाया है, दूसरा कोई मोक्षमार्ग नही है । इससे यहाँ यह भी बतलाया है कि पुण्यसे,-शुभभावसे अथवा परवस्तु अनुकूल हो तो धर्म हो सकता है ऐसा मानना भूल है। सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र आत्माकी शुद्ध पर्याय है। यदि उसे एक शब्दमें कहा जाय तो 'सत्य पुरुषार्थ' मोक्षमार्ग है। इससे सिद्ध हुआ कि आत्माकी अपनी अपनी शुद्ध परिणति ही धर्म है; यह बतलाकर अनेकान्त स्वरूप बतलाया है। प्रथम सूत्रमे जो पहिला शब्द 'सम्यग्दर्शन' कहा है वह सूचित करता है कि धर्मका प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शनसे ही होता है। उस अध्यायमें निश्चय सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान कहा है । तत्पश्चात् तत्त्वार्थका स्वरूप समझाया है और सम्यग्ज्ञानके अनेक प्रकार बतलाकर मिथ्याज्ञानका स्वरूप भी समझाया है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता (-एक ही) मोक्षमार्ग है;-इसप्रकार पहिले सूत्र में स्पष्टतया बतलाकर घोषित किया है कि-किसी समय उपादानकी परिणतिकी मुख्यतासे कार्य होता है और किसी समय संयोगरूप बाह्य अनुकूल निमित्तकी (जिसे उपचार कारण कहा जाता है उसकी) मुख्यतासे कार्य होता है-ऐसा अनेकांतका स्वरूप नही है। दूसरे अध्यायसे जीव तत्त्वका अधिकार प्रारम्भ किया है, उसमें जीवके स्वतत्त्वरूप-निजस्वरूप पाँच भाव बतलाये हैं। उन पांच भावोंमेसे सकलनिरावरण, अखंड, एक, प्रत्यक्षप्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्धपारिणामिक परमभाव, ( ज्ञायकभाव ) के आश्रयसे धर्म होता है यह बतलानेके लिये, औपशमिकभाव जो कि धर्मका प्रारम्भ है उसे पहिले भावके रूपमें वर्णन किया है। तत्पश्चात् जीवका लक्षण उपयोग है यह बतलाकर उसके
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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