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________________ अध्याय २ सूत्र १०-११ २५१ तथा अशुभभाव करता रहता है, उसमें भी जीवने नरकके योग्य तीव्र अशुभभावकी अपेक्षा देवके योग्य शुभभाव असंख्यात गुणे किये हैं। शुभभाव कर के यह जीव अनंत बार स्वर्गमें देव होकर नवमें नैवेयक तक जा चुका है, यह सब पहिले पैरा १० में कहा जा चुका है। ६. नवमे ग्रेवेयकके योग्य शुभभाव करनेवाला जीव गृहीतमिथ्यात्व छोड़ देता है, सच्चे देव, गुरु, शाखको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति और पांच समिति आदिके उत्कृष्ट शुभभाव अतिचार रहित पालन करता है। इतना करनेपर ही जीवको नवमें ग्रेवेयकमें जानेके योग्य शुभभाव होते हैं । आत्मप्रतीतिके बिना मिथ्याष्टिके योग्य उत्कृष्ट शुभभाव जीवने अनन्त बार किये हैं फिर भी मिथ्यात्व नहीं गया । इसलिये शुभभाव-पुण्य करते करते धर्म-सम्यग्दर्शन हो या मिथ्यात्व दूर हो जाय, यह अशक्य है। इसलिये ७. इस मनुष्य भवमें ही जीवोंको आत्माका सच्चा स्वरूप समझ कर सम्यक्त्व प्राप्त करना चाहिए । 'Strike the iron while it is hot' जबतक लोहा गर्म है तबतक उसे पीट लो-गढ़ लो, इस कहावतके अनुसार इसी मनुष्यभवमें जल्दी आत्मस्वरूपको समझ लो, अन्यथा थोड़े ही समयमे त्रस काल पूरा हो जायगा और एकेन्द्रिय-निगोदपर्याय प्राप्त होगी और उसमें अनंतकाल तक रहना होगा ॥ १० ॥ संसारी जीवोंके भेदसमनस्काऽमनस्काः ॥११॥ अर्थ-संसारी जीव [समनस्काः] मनसहित-सैनी [ अमनस्काः ] मनरहित असैनी, यों दो प्रकारके हैं । टीका १. एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय तकके जीव नियमसे असैनी ही होते हैं। पंचेन्द्रियोंमे तिर्यंच सैनी और असैनी दो प्रकारके होते है। शेप मनुष्य देव और नारकी जीव नियमसे सैनी ही होते हैं।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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