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________________ २४७ अध्याय २ सूत्र १० भवभ्रमणका कारण मिथ्यादृष्टित्व है इस सम्बन्धमें कहा है किणिरयादि जहण्णादिसु जावदु उवरिल्लिया दु गेवेजा । मिच्छत्त संसिदेण हु बहुसो वि भवहिदी भमिदो ॥१॥ अर्थ-मिथ्यात्वके संसर्ग सहित नरकादि की जघन्य प्रायुसे लेकर उत्कृष्ट अवेयक ( नवमे अवेयक ) तकके भवोंकी स्थिति ( आयु ) को यह जीव अनेक बार प्राप्त कर चुका है। ११. भावपरिवर्तनका स्वरूप (१) असंख्यात योगस्थान एक अनुभागबन्ध (अध्यवसाय) स्थान को करता है। [कषायके जिसप्रकार( Degree) से कर्मोके बन्धमे फलदानशक्तिकी तीव्रता आती है उसे अनुभागबन्धस्थान कहा जाता है। ] (२) असंख्यात x असंख्यात अनुभागबन्ध अध्यवसायस्थान एक कषायभाव ( अध्यवसाय ) स्थानको करते हैं। [ कषायका एक प्रकार (Degree) जो कर्मोकी स्थितिको निश्चित करता है उसे कषायअध्यवसाय स्थान कहते हैं। ] (३) असंख्यात x असंख्यात कषायअध्यवसायस्थान * पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवके कर्मोकी जघन्यस्थितिबन्ध करते हैं, यह स्थिति-अंतःकोडाकोड़ीसागरकी होती है, अर्थात् कोड़ाकोड़ीसागरसे नोचे और कोड़ीसे ऊपर उसकी स्थिति होती है। (४) एक जघन्यस्थितिबन्ध होनेके लिये यह आवश्यक है कि-जीव असख्यात योगस्थानोमेसे (एक २ योगस्थानमेसे ) एक अनुभागबन्धस्थान ___* जघन्य स्थितिबन्धके कारण जो कषायभावस्थान है उनकी संख्या असंख्यात लोकके प्रदेशोके बराबर है: एक २ स्थानमें अनतानत अविभाग प्रतिच्छेद हैं, जो अनतभाग हानि, असख्यातभाग हानि, सख्यातभाग हानि, संख्यातगुण हानि, असंख्यातगुण हानि, अनन्तगुरण हानि तथा अनन्तभाग वृद्धि, असख्यातभाग वृद्धि, सख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनतगुण वृद्धि इसप्रकार छह स्थान वाली हानि वृद्धि सहित होता है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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