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________________ २२४ मोक्षशास्त्र ६. प्रश्न-पारिणामिकभावको कहीं किसी गुणस्थानमें पर्यायरूपसे वर्णन किया है ? उचर-हाँ, दूसरा गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्मको उदय, उपशम, क्षयोपशम, या क्षय इन चार अवस्थाओंमेसे किसी भी अवस्थाकी अपेक्षा नही रखता, इतना बतानेके लिये वहां श्रद्धाकी पर्याय अपेक्षासे पारिणामिकभाव कहा गया है। यह जीव जो चारित्रमोहके साथ युक्त होता है सो वह तो औदयिकभाव है, उस जीवके ज्ञानदर्शन और वीर्यका क्षायोपशमिकभाव है और सर्व जीवोंके (द्रव्याथिकनय से) अनादि अनंत पारिणामिक भाव होता है, वह इस गुणस्थानमें रहनेवाले जीवके भी होता है। ७. प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीव विकारीभावोंको-अपूर्णदशाको आत्मा का स्वरूप नहीं मानते और इस सूत्रमे ऐसे भावोंको प्रात्माका स्वतत्त्व कहा है इसका क्या कारण है ? उत्तर-विकारीभाव और अपूर्ण अवस्था प्रात्माकी वर्तमान भूमिका में मात्माके अपने दोषके कारण होती है, किसी जड़कर्म अथवा परद्रव्यके कारण नहीं, यह बतानेके लिये इस सूत्रमें उस भावको 'स्वतत्त्व' कहा है। ७. जीवका कर्तव्य जीवको तत्त्वादिका निश्चय करनेका उद्यम करना चाहिये उससे औपशमिकादि सम्यक्त्व स्वयं होता है। द्रव्यकर्मके उपशमादि पुद्गलकी शक्ति (पर्याय) है, जीव उसका कर्ता हर्ता नही है । पुरुषार्थ पूर्वक उद्यम करना जीवका काम है । जीवको स्वयं तत्त्व निर्णय करनेमें उपयोग लगाना चाहिये । इस पुरुषार्थसे मोक्षके उपायकी सिद्धि अपने आप होती है। जब जीव पुरुषार्थके द्वारा तत्त्व निर्णय करने में उपयोग लगानेका अभ्यास करता है तब उसकी विशुद्धता बढ़ती है, कर्मोका रस स्वय हीन होता है और कुछ समयमें जब अपने पुरुषार्थ द्वारा प्रथम औपशमिकभावसे प्रतीति प्रगट करता है तब दर्शनमोहका स्वयं उपशम हो जाता है। जीवका कर्तव्य तो तत्त्व निर्णयका अभ्यास है । जब जीव तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगाता है
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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