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________________ २७ गुणस्थान में प्रवर्तमान महाव्रतादिके शुभ विकल्प सातवें गुणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिगतिका साधन है,' तो यह उपचरित निरूपण है । ऐसे उपचरित निरूपण मेसे ऐसा अर्थ निकालना चाहिये कि 'महाव्रतादिके शुभ विकल्प ( साधन ) नही किन्तु उनके द्वारा जिस छठवें गुणस्थान योग्य शुद्धिको बताना था वह शुद्धि वास्तव में सातवें गुरणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है ।' ] (६) परम्परा कारणका अर्थ निमित्त कारण है, व्यवहार मोक्षमार्गको निश्चय मोक्षमार्ग के लिये भिन्न साधन - साध्यरूपसे कहा है, उनका अर्थ भी निमित्त मात्र है । जो निमित्तका ज्ञान न किया जाय तो प्रमारण ज्ञान होता नही, इसलिये जहाँ जहाँ उसे साधक, साधन, कारण, उपाय, मार्ग, सहकारी कारण, बहिरंग हेतु कहा है वे सभी उस उस भूमिका के सम्वन्धमें जानने योग्य निमित्त कारण कैसा होता है, उसका यथार्थ ज्ञान करानेके लिये है । जो गुणस्थान अनुसार यथायोग्य साधक भाव, बाधक भाव और निमित्तोंको यथार्थतया न जाने तो वह ज्ञान मिथ्या है । कारण कि उस सम्वन्धमे सच्चे ज्ञानके प्रभावमे अज्ञानी ऐसा कहता है कि भावलिंगी मुनिदशा नग्नदिगम्बर ही हो ऐसी कोई आवश्यकता नही है तो उनकी यह वात मिथ्या ही है, कारण कि भावलिगी मुनिको उस भूमिकामें तीन जातिके कषाय चतुष्टयका अभाव और सर्व सावद्य योगका त्याग सहित २८, भूलगुणोका पालन होते हैं इसलिये उसे वखका सम्बन्धवाला राग अथवा उस प्रकारका शरीरका राग कभी भी होता ही नही ऐसा निरपवाद नियम है, वस्त्र रखकर अपनेको जैनमुनि माननेवालेको शास्त्रमें निगोदगामी कहा है । इसप्रकार गुणस्थानानुसार उपादान निमित्त दोनोंका यथार्थ ज्ञान होना चाहिये साधक जीवका ज्ञान ऐसा ही होता है जो उस उस भेदको जानता संता प्रगट होता है । समयसार शास्त्रमे गाथा १२ मे मात्र, इस हेतुसे व्यवहार नयको जाननेके लिये प्रयोजनवानपना बताया है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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