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________________ अध्याय १ परिशिष्ट ५ २०७ ब्यालीस प्रकारका है। कहा भी है __ पांचरस, पांच वर्ण, दो गंध आठ स्पर्श, सात स्वर, मन और चौदह प्रकारके जीव; इनकी अपेक्षा अविरमण अर्थात् इन्द्रिय व प्राणीरूप असंयम ब्यालीस प्रकारका है ॥ ३३ ॥ अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, और लोभ, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया और लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भेदसे कषाय पच्चीस प्रकारकी है। योग पन्द्रह प्रकारका है। प्रास्रवके प्रतिपक्षका नाम संवर है। ग्यारह भेदरूप गुरण श्रेणिके द्वारा कर्मोका गलना निर्जरा है। जीवों और कर्म-पुद्गलोके समवायका नाम बंध है। जीव और कर्मका निःशेष विश्लेष होना मोक्ष है । इन सवभावोंको केवली जानते हैं। समं अर्थान् अक्रमसे (-युगपत् ) । यहाँ जो 'सम' पदका ग्रहण किया है वह केवलज्ञान अतीन्द्रिय है और व्यवधान आदिसे रहित है इस बातको सूचित करता है; क्योकि, अन्यथा सब पदार्थोंका युगपत् ग्रहण करना नहीं बन सकता; संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे अथवा त्रिकाल गोचर समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोका ग्रहण होनेसे केवली भगवान् सम्यक् प्रकारसे जानते है । ___ केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थोका ग्रहण होनेपर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नही है, क्योंकि उनके स्वरूप परिच्छित्ति अर्थात् स्वसंवेदनका अभाव है; ऐसी आशंका होने पर सूत्रमे 'पश्यति' कहा है । अर्थात् वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित आत्माको भी देखते है । ___केवलज्ञान की उत्पत्ति होनेके बाद सब कर्मोंका क्षय हो जाने पर शरीर रहित हुए केवलो उपदेश नही दे सकते, इसलिये तीर्थका अभाव प्राप्त होता है, ऐसा कहने पर सूत्र में 'विहरदि' कहा है। अर्थात् चार अघाति कर्मोका सत्त्व होनेसे वे कुछ कम एक पूर्व कोटिकाल तक विहार करते है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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