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________________ मोक्षशास्त्र प्रथम अध्यायका परिशिष्ट [4] केवलज्ञानका खरूप (१) षट्खंडागम - धवलाटीका पुस्तक १३ सूत्र ८१-८२ द्वारा आचार्यदेवने कहा है कि: "वह केवलज्ञान सकल है, संपूर्ण है, और सपत्न है ॥ ८१ ॥ अखंड होनेसे वह सकल है । शंका- यह ग्रखंड कैसे है ? समाधान -- समस्त बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति नही होने पर ज्ञानमें खण्डपना आता है, सो वह इस ज्ञान में सम्भव नही है; क्योकि, इस ज्ञानके विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं । अथवा द्रव्य, गुरण और पर्यायोंके भेदका ज्ञान अन्यथा नही बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है ऐसे ज्ञानके अवयवोका नाम कला है; इन कलाओके साथ वह अवस्थित रहता है इसलिये सकल है । 'सम' का अर्थं सम्यक् है, सम्यक् अर्थात् परस्पर परिहार लक्षण विरोधके होने पर भी सहानअवस्थान लक्षण विरोधकके न होनेसे चूंकि वह अनंतदर्शन, अनंनवीर्यं विरति एवं क्षायिकसम्यक्त्व आदि अनंत गुरगोसे पूर्ण है; इसीलिये इसे सम्पूर्ण कहा जाता है । वह सकल गुरणोंका निधान है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सपत्नका अर्थ शत्रु है, केवलज्ञानके शत्रु कर्म है । वे इसके नहीं रहे हैं, इसलिये केवलज्ञान असपत्न है । उसने अपने प्रतिपक्षि घातिचतुष्क का समूल नाश कर दिया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यह केवलज्ञान स्वयं ही उत्पन्न होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये और उसके विषयका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि,
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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