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________________ श्रध्याय १ परिशिष्ट ४ - १६७ क्रमसे जीव साधन करे तो परम्परासे सच्चे मोक्षमार्गको पाकर सिद्ध पदको भी प्राप्त कर ले; और जो इस क्रमका उलंघन करता है उसे देवादिकी मान्यताका भी कोई ठिकाना नहीं रहता । इसलिये जो जीव अपना भला 'करना चाहता है उसे जहाँ तक सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो वहाँ तक इसे भी क्रमशः अंगीकार करना चाहिये । [ सम्यग्दर्शन के लिये अभ्यासका क्रम ] पहिले श्राज्ञादिके द्वारा ग्रा किसी परीक्षाके द्वारा कुदेवादिकी मान्यताको छोड़कर अरहन्त देवादिका श्रद्धान करना चाहिये, क्योंकि इनका श्रद्धान होने पर ग्रहीतमिथ्यात्वका अभाव होता है, कुदेवादिका निमित्त दूर होता है और अरहन्त देवादिका निमित्त मिलता है, इसलिये पहिले देवादिका श्रद्धान करना चाहिये और फिर जिनमतमे कहे गये जीवादितत्त्वोंका विचार करना चाहिये, उनके नाम - लक्षणादि सीखना चाहिये, क्योंकि इसके अभ्याससे तत्त्वश्रद्धानकी प्राप्ति होती है । इसके बाद जिससे स्व-परका भिन्नत्व भासित हो ऐसे विचार करते रहना चाहिये, क्योकि इस अभ्याससे भेद विज्ञान होता है । इसके बाद एक निजमें निजत्व माननेके लिये स्वरूपका विचार करते रहना चाहिए | क्योकि - इस अभ्याससे श्रात्मानुभवकी प्राप्ति होती है । इसप्रकार क्रमशः उन्हे अंगीकार करके, फिर उसमेंसे ही कभी देवादिके विचारमें, कभी तत्त्व विचारमें, कभी स्व-परके विचारमे तथा कभी श्रात्मविचारमे ́उपयोगको लगाना चाहिए । इस प्रकार अभ्याससे सत्य सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है । (८) प्रश्न- सम्यक्त्वके लक्षरण अनेक प्रकारके कहे गये हैं, उनमें से यहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको ही मुख्य कहा है, सो इसका क्या कारण है ? उत्तर - तुच्छ बुद्धि वालेको श्रन्य लक्षणोंमें उसका प्रयोजन प्रगट "भासित नही होता या भ्रम उत्पन्न होता है तथा इस तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण - में प्रयोजन प्रगटरूपसे भासित होता है और कोई भी भ्रम उत्पन्न नही होता, इसलिये इस लक्षणको मुख्य किया है । यही यहाँ दिखाया जा रहा है:
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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