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________________ अध्याय १ परिशिष्ट ३ १५३ इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ माने तो समझना चाहिए कि उसे ध्यवहारसे भी आत्माका निश्चय नही है। अनंत उपवास करने पर भी प्रात्मज्ञान नहीं होता, बाहर की दौड़ धूपसे भी ज्ञान नहीं होता किंतु ज्ञानस्वभावकी पकड़ से ही ज्ञान होता है । आत्माको ओर लक्ष और श्रद्धा किये बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहाँसे हो सकता है ? पहिले देव गुरु शास्त्रके निमित्तोंसे अनेकप्रकारसे श्रु तज्ञान जानता है और उन सबमेसे एक आत्माको निकाल लेता है, और फिर उसका लक्ष करके प्रगट अनुभव करनेके लिये, मतिश्र तज्ञानके बाहिर झुकने वाली पर्यायोंको स्वसन्मुख करता हुआ तत्काल निर्विकल्प निजस्वभाव-रस-प्रानंदका अनुभव होता है । जब आत्मा परमात्मस्वरूपका अनुभव करता है उसी समय प्रात्मा स्वयं सम्यग्दर्शनरूप प्रगट होता है, उसे बादमें विकल्प उठने पर भी उसकी प्रतीति बनी रहती है, अर्थात् आत्मानुभवके बाद विकल्प उठे तो उससे सम्यग्दर्शन चला नहीं जाता । निज स्वरूप ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । ___सम्यग्दर्शनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करनेके बाद भी शुभ भाव आते तो हैं किन्तु आत्महित तो ज्ञानस्वभावका निश्चय और आश्रय करनेसे ही होता है। जैसे जैसे ज्ञानस्वभावकी दृढता बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे शुभभाव भी हटते जाते हैं । परोन्मुखतासे जो वेदन होता है वह सब दुःखरूप है, अंतरंगमें शांतरस की ही मूर्ति आत्मा है, उसके अभेद लक्ष से जो वेदन होता है वही सुख है । सम्यग्दर्शन आत्माका गुरण है, गुण गुणी से अलग नही होता । ज्ञानादि अनंत गुणोंका पिंड एक अखंड प्रतिभासमय आत्माका निःशंक अनुभव ही सम्यग्दर्शन है। अंतिम अभिप्राय यह आत्म कल्याणका छोटेसे छोटा ( जिसे सब कर सके ऐसा ) उपाय है । दूसरे सब उपाय छोड़कर यही एक करना है। हितका साधन बाह्य में किचित् मात्र नही है सत्समागमसे एक आत्माका ही निश्चय करना चाहिए । वास्तविक तत्त्वकी श्रद्धाके बिना आंतरिक वेदनका आनन्द नहीं आ सकता । पहिले भीतरसे सत्की स्वीकृति आये बिना सतु स्वरूपका ज्ञान
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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