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________________ १७४ मोक्षशास्त्र धर्म बतावे वह कुगुरु - कुदेव - कुशास्त्र है; क्योंकि वे यथावत् वस्तु स्वरूपके ज्ञाता नही है प्रत्युत उल्टा स्वरूप बतलाते हैं । जो वस्तु स्वरूपको यथावत् नहीं बतलाते और किंचित्मात्र भी विरुद्ध बतलाते है वे कोई देव, गुरु, या शास्त्र सच्चे नही है । श्रुतज्ञानके अवलम्बनका फल - आत्मानुभव 'मैं आत्मा ज्ञायक हैं' पुण्य पापकी प्रवृत्तियाँ मेरी ज्ञेय है, वे मेरे ज्ञानसे पृथक् है, इसप्रकार पहिले विकल्पके द्वारा देव गुरु-शास्त्र के अवलम्बन से यथार्थ निर्णय करना चाहिए । यह तो अभी ज्ञान स्वभावका अनुभव नही हुआ उससे पहिलेकी बात है । जिसने स्वभावके लक्षसे श्रुतका अवलम्बन लिया है बह अल्पकालमें आत्मानुभव अवश्य करेगा । प्रथम विकल्प मे जिसने यह निश्चय किया कि में परसे भिन्न हूँ, पुण्य पाप भी मेरा स्वरूप नही है, मेरे शुद्धस्वभावके आश्रयसे ही लाभ है, देव, गुरु शास्त्रका भी अवलम्बन परमार्थसे नही है, में तो स्वाधीन ज्ञान स्वभाव हूँ; इसप्रकार निर्णय करनेवालेको अनुभव हुए बिना नही रहेगा । पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नही है, में ज्ञायक है - इसप्रकार जिसने निर्णयके द्वारा स्वीकार किया है, उसका परिणमन पुण्य-पापकी ओरसे पीछे हटकर ज्ञायक स्वभावकी श्रोर ढल गया है अर्थात् उसे पुण्य-पापका आदर नही रहा, इसलिये वह अल्पकालमें ही पुण्य-पाप रहित स्वभावका निर्णय करके और उसकी स्थिरता करके वीतराग होकर पूर्ण हो जायगा । यहाँ पूर्णकी ही बात है - प्रारम्भ और पूर्णता के बीच कोई भेद ही नहीं किया, क्योकि जो प्रारम्भ हुआ है वह पूर्णताको लक्षमें लेकर ही हुआ है । सत्यको सुनानेवाले और सुननेवाले दोनोंकी पूर्णता ही है । जो पूर्ण स्वभावकी बात करते हैं वे देव-गुरु और शास्त्र- तीनों पवित्र ही हैं । उनके अवलम्बनसे जिसने हाँ कही है वह भी पूर्ण पवित्र हुए बिना नही रह सकता" 'जो पूर्णकी हाँ कहकर आया है वह पूर्ण होगा ही . ... इस प्रकार उपादान निमित्तकी संधि साथ ही है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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