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________________ १७० मोक्षशास्त्र आत्माका धर्म नहीं है। धर्म तो अपना स्वभाव है, धर्म पराधीन नहीं है। किसीके अवलम्बनसे धर्म नही होता। धर्म किसीके द्वारा दिया नहीं जाता किन्तु अपनी पहिचानसे ही धर्म होता है। जिसे अपना पूर्णानन्द चाहिये है उसे यह निश्चित करना चाहिए कि पूर्णानन्दका स्वरूप क्या है और वह किसे प्रगट हुआ है ? जो प्रानन्द मैं चाहता हूँ वह पूर्ण अबाधित आनन्द चाहता हूँ। अर्थात् कोई आत्मा वैसे पूर्णानन्द दशाको प्राप्त हुए हैं और उन्हें पूर्णानन्द दशामें ज्ञान भी पूर्ण ही है, क्योंकि यदि ज्ञान पूर्ण न हो तो राग-द्वेष रहेगा, उसके रहनेसे दुःख रहेगा और जहाँ दुःख होता है वहाँ पूर्णानन्द नहीं हो सकता इसलिए जिन्हे पूर्णानन्द प्रगट हुया है ऐसे सर्वज्ञ भगवान हैं। उनका और वे क्या कहते हैं इसका जिज्ञासुको निर्णय करना चाहिए। इसीलिए कहा है कि 'पहिले श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे आत्माका-पूर्णरूपका निर्णय करना चाहिए' .................इसमें उपादाननिमित्तकी संधि विद्यमान है । ज्ञानी कौन है, सत् बात कौन कहता है,यह सब निश्चय करनेके लिए निवृत्ति लेनी चाहिए। यदि स्त्री-कुटुम्ब, . लक्ष्मीका प्रेम और संसारकी रुचिमे कमी न आये तो वह सत् समागमके लिए निवृत्ति नही ले सकेगा। जहाँ श्रुतका अवलम्बन लेनेको कहा है वहीं तीव्र अशुभ भावका त्याग आ गया और सच्चे निमित्तोंकी पहिचान करना भी आ गया। सुखका उपाय ज्ञान और सत् समागम तुझे तो सुख चाहिए है ? यदि तुझे सुख चाहिए है तो पहिले यह निर्णय कर कि सुख कहाँ है और वह कैसे प्रगट होता है । सुख कहाँ है और वह कैसे प्रगट होता है, इसका ज्ञान किये बिना ( बाह्याचार करके यदि ) सूख जाय तब भी सुख नहीं मिलता-धर्म नहीं होता। सर्वज्ञ भगवानके द्वारा कथित श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे यह निर्णय होता है और इस निर्णयका करना ही प्रथम धर्म है। जिसे धर्म करना हो वह धर्मीको पहिचान कर वे क्या कहते है इसका निर्णय करनेके लिये सत् समागम करे । सत् समागमसे जिसे श्रुतज्ञानका अवलम्बन प्राप्त हुआ है कि अहो !
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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