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________________ १६८ मोक्षशास्त्र अपनी अवस्थामें अधर्म-प्रशांति है उसे दूर करके धर्म-शांति प्रगर्ट करना है । वह शांति अपने आधारसे और परिपूर्ण होनी चाहिये। जिसे ऐसी जिज्ञासा होती है वह पहिले यह निश्चय करता है कि मैं एक आत्मा अपना परिपूर्ण सुख प्रगट करना चाहता हूँ। तो वैसा परिपूर्ण सुख किसी औरके प्रगट हुआ होना चाहिए, यदि परिपूर्ण सुख-आनंद प्रगट न हो तो दुखी कहलाये। जिसे परिपूर्ण और स्वाधीन आनंद घंगट होता है वह संपूर्ण सुखी है; और ऐसे सर्वज्ञ वीतराग हैं । इसप्रकार जिज्ञासु अपने ज्ञानमें सर्वज्ञ का निर्णय करता है । दूसरेका कुछ करने धरनेकी बात तो है ही नहीं। जब परसे कुछ पृथक् हुआ है तभी तो आत्माकी जिज्ञासा हुई है। जिसे -परसे हटकर आत्महित करनेकी तीव्र आकांक्षा जाग्रत हुई है ऐसे जिज्ञासु जीवकी यह बात है । परद्रव्यके प्रति सुंखबुद्धि और रुचिको दूर की; वह पात्रता है। और स्वभावकी रुचि तथा पहिचान होना सौ पावेताका फल है। दुखका मूल भूल है जिसने अपनी भूलसे दुःख उत्पन्न किया है वह अपनी भूलको दूर करे तो उसकी दुखें दूर हो । अन्य किसीने भूल नहीं कराई इसलिये दूसरा कोई अपना दुःख दूर करने में समर्थ नही है।। श्रुतज्ञानकी अवलम्बन ही पहिली क्रिया है जो आत्म कल्याण करने को तैयार हुआ हैं ऐसे जिज्ञासुको पहिले क्या करना चाहिए, यह बताया जाता है। आत्मकल्याण कही अपने आप नहीं हो जाता किंतु वह अपने ज्ञानमें रुचि और पुरुषार्थसे होता है। अपना कल्याण करनेके लिये पहिले अपने ज्ञानमे यह निर्णय करना होगा किजिन्हें पूर्ण कल्याण प्रगट हुआ है वे कौन हैं और वे क्या कहते हैं । तथा उन्होंने पहिले क्या किया थो । अर्थात् सर्वज्ञका स्वरूप जानकर उनके द्वारा कहे गये श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे अपने आत्माका निर्णय करना चाहिये, यही प्रथम कर्तव्य है। किसी परके अवलम्बनसे धर्म प्रगट नही होता, फिर भी जब स्वयं अपने पुरुषार्थसे समझता है तब सन्मुख निमित्तरूपसे सच्चे। देव-गुरु ही होते हैं।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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