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________________ अध्याय १ परिशिष्ट ३ १६५ पात्र हुए जीवोंको आत्माका स्वरूप समझने के लिए क्या करना चाहिए सो यहाँ स्पष्ट बताया है । सम्यग्दर्शनके उपायके लिये ज्ञानियोंके द्वारा बताई गई क्रिया “पहिले श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके, फिर आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिए, पर पदार्थकी प्रसिद्धिकी कारण जो इन्द्रियोके द्वारा और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियाँ है उन्हें मर्यादामें लाकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्वको श्रात्मसंमुख किया है ऐसा, तथा नानाप्रकार के पक्षोंके आलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पोके द्वारा आकुलताको उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मान मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ, प्रत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल ... परमात्मस्वरूप आत्माको जब आत्मा अनुभव करता है उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है [ अर्थात् श्रद्धा की जाती है ] और ज्ञात होता है वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।" [ देखो समयसार गाथा १४४ को टीका ] उपरोक्त कथनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है: श्रुतज्ञान किसे कहना चाहिए ? "प्रथम श्र ुतज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभाव प्रात्माका निर्णय करना चाहिए ।" ऐसा कहा है । श्रुतज्ञान किसे कहना चाहिए ? सर्वज्ञदेवके द्वारा कहा गया श्रुतज्ञान अस्ति नास्ति द्वारा वस्तु स्वरूपको सिद्ध करता है । जो अनेकांतस्वरूप वस्तुको 'स्वरूपसे है और पररूपसे नही है' इसप्रकार वस्तुको स्वतन्त्र सिद्ध करता है वह श्र तज्ञान है । एक वस्तु निजरूपसे है और वह वस्तु अनन्त पर द्रव्योंसे पृथक् है इसप्रकार अस्ति नास्तिरूप परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोको प्रकाशित करके जो वस्तु स्वरूपको वतावे - सिद्ध करे सो अनेकान्त है और वही श्रुतज्ञानका लक्षण है । वस्तु स्वापेक्षासे है और परापेक्षासे नही इसमें वस्तुकी नित्यता और स्वतन्त्रता सिद्ध की है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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