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________________ अध्याय १ परिशिष्ट १ १४६ अनंतानुरंबी होघ मान माया लोभ है उसका एक ही साथ अभाव हो जाता है, और तत्पश्चात् कमनः वीतरागताके बढ़नेपर चारित्रमोहका क्रमशः सभाप होता जाता है, इसलिये दर्गनको कारण और चारित्रको कार्य भी पाहा जाता है, उनप्रकार भेदको अपेक्षासे वे पृयक हैं। इसलिये प्रथम अभेदकी पेशाले 'मोह' एक होनेसे उसे एक कर्म मानकर फिर उसके दो उपविभाग नमोह और नारिनमोह माने गये है। चार घातिया कर्मों को चार गुणोंके घातमे निमित्त कहा है इसका पारण यह है कि मोह फर्मको अभेदकी अपेक्षासे जब एक माना है तब घसा और चारिन गुणको अभेदको अपेक्षासे शांति (सुख) मान कर चार गुणक पातने चार घातिया कर्मोको निमित्तरूप कहा है। शंका~यदि मिथ्यात्व और कपाय एक ही हो तो मिथ्यात्वका नाश होने पर कपायका भी अभाव होना चाहिए, जिस कषायके अभावको चारित्र की प्राप्ति कहते हैं, किन्तु ऐसा नही होता और सम्यक्त्वके प्राप्त होने पर भी चौथे गुणस्थानमे चारित्र प्राप्त नहीं होता, इसलिये चौथे गुणस्थानको अनतरूप कहा जाता है । अणुव्रतके होनेपर पाँचवाँ गुणस्थान होता है और पूर्ण व्रतके होने पर 'वती' संज्ञा होने पर भी यथाख्यात चारित्र प्राप्त नही होता । इसप्रकार विचार करनेसे मालूम होगा कि सम्यक्त्वके क्षायिक रूप पूर्ण होने पर भी चारित्रकी प्राप्तिमे अथवा पूर्णतामे विलंब होता है इस. लिये सम्यक्त्व और चारित्र अथवा मिथ्यात्व और कषायोंमें एकता तथा कार्य-कारणता कैसे ठीक हो सकती है ? समाधान-मिथ्यात्वके न रहनेसे जो कषाय रहती है वह मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली अति तीन अनंतानुवधी कषायोके समान नही होती, किन्तु अति मंद हो जाती है, इसलिये वह कषाय चाहे जैसा बंध करे तथापि वह वध दीर्घसंसारका कारणभूत नही होता, और इससे ज्ञानचेतना भी सम्यग्दर्शनके होते ही प्रारंभ हो जाती है, जोकि बधके नाशका कारण है, इसलिये जब प्रथम मिथ्यात्व होता है तब जो चेतना होती है वह कर्मचेतना और कर्मफलचेतना होती है जो कि पूर्ण बंधका कारण है। इसका
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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