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________________ अध्याय १ परिशिष्ट १ १३७ "जो प्रत्यक्षके समान होता है उसे भी प्रत्यक्ष कहते हैं। जैसे लोक में भी कहते हैं कि-'हमने स्वप्नमें या ध्यानमें अमुक मनुष्यको प्रत्यक्ष देखा, यद्यपि उसने प्रत्यक्ष नही देखा है तथापि प्रत्यक्षकी भाँति यथार्थ देखा है इसलिये उसे प्रत्यक्ष कह देते हैं, इसीप्रकार अनुभवमे आत्मा प्रत्यक्षकी भांति यथार्थ प्रतिभासित होता है। प्रश्न:-श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत समयसार परमागममे इस संबंधमे क्या कहा है ? उत्तर:-(१) श्रीसमयसारकी ४६ वी गाथाकी टीकामें इसप्रकार कहा है;-इसप्रकार रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तता का अभाव होने पर भी स्वसंवेदनके बलसे सदा प्रत्यक्ष होनेसे अनुमानगोचर -मात्रताके अभावके कारण (जीवको) अलिंगग्रहण कहा जाता है।' ___ "अपने अनुभवमे आनेवाले चेतना गुणके द्वारा सदा अंतरंगमे प्रकाशमान है इसलिये (जीव) चेतना गुणवाला है।" (२) श्री समयसारकी १४३ वी गाथाकी टीकामें इसप्रकार कहा है; टीका:-जैसे केवली भगवान, विश्वके साक्षीपनके कारण, श्रुतज्ञान के अवयवभूत-व्यवहार निश्चयनयपक्षोके स्वरूपको ही केवल जानते है किंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल केवलज्ञानके द्वारा सदा स्वय ही विज्ञानधन होनेसे श्रुतज्ञानकी भूमिकाके अतिक्रान्तत्वके द्वारा (श्रुतज्ञानकी भूमिकाको उल्लंघन कर चुकनेसे) समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर होनेसें, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते, उसीप्रकार जो (श्रुतज्ञानी आत्मा ), जिसकी उत्पत्ति क्षयोपशम से होती है ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्पोके उत्पन्न होते हुए भी परका ग्रहण करनेके प्रति उत्साह निवृत्त होनेसे, श्रु तज्ञानके अवयवभूत व्यवहार निश्चयनय पक्षोके स्वरूपको ही केवल जानते हैं, किंतु तीक्ष्ण ज्ञान दृष्टि से ग्रहण किये गये निर्मल, नित्य उदित, चिन्मय समयसे प्रतिबद्धताके कारण ( चैतन्यमय प्रात्माके अनुभवसे ) उस समय (अनुभवके समय) स्वयं ही विज्ञानघन होनेसे, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्प१८
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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