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________________ ७६ अध्याय १ सूत्र १८ ईहा अर्थावग्रहके बाद ईहा होता है अर्थावग्रह ज्ञानमें किसी पदार्थकी जितनी विशेषता भासित हो चुकी है उससे अधिक जाननेकी इच्छा हो तो वह ज्ञान सत्यकी ओर अधिक झुकता है, उसे ईहाज्ञान कहा जाता है। वह (ईहा) सुदृढ़ नही होता । ईहामे प्राप्त हुए सत्य विषयका यद्यपि पूर्ण निश्चय नही होता तथापि ज्ञानका अधिकांश वहाँ होता है। वह ( ज्ञानके -अधिकांश ) विषयके सत्यार्थग्राही होते हैं, इसलिये ईहाको सत्य ज्ञानोंमें गिना गया है। अवाय - अवायका अर्थ निश्चय अथवा निर्णय होता है ईहाके बादके काल तक ईहाके विषय पर लक्ष रहे तो ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है; और उसे अवाय कहते हैं । ज्ञानके अवग्रह, ईहा, और अवाय इन तीनों भेदोमे से अवाय उत्कृष्ट अथवा सर्वाधिक विशेषज्ञान है। धारणा धारणा अवायके बाद होती है। किन्तु उसमें कुछ अधिक दृढता उत्पन्न होनेके अतिरिक्त अन्य विशेषता नही है, धारणाकी सुदृढ़ताके कारण एक ऐसा संस्कार उत्पन्न होता है कि जिसके हो जानेसे पूर्वके अनुभवका स्मरण हो सकता है। एकके बाद दूसरा ज्ञान होता ही है या नहीं ? अवग्रह होनेके बाद ईहा हो या न हो, और यदि अवग्रहके बाद ईहा हो तो एक ईहा ही होकर छूट जाता है और कभी कभी अवाय भी होती है । अवाय होनेके बाद धारणा होती है और नही भी होती। ईहाज्ञान सत्य है या मिथ्या ? जिस ज्ञानमे दो विषय ऐसे आ जाय जिनमे एक सत्य हो और दूसरा मिथ्या, तो (ऐसे समय) जिस अश पर ज्ञान करनेका अधिक ध्यान
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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