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________________ है । बहुरि व्यवहारनय है, सो अंगीकार करने योग्य नाहीं। यहाँ प्रश्न-व्यवहार विना निश्चयका कैसे न होय । बहुरि व्यवहारनय कैसे अंगीकार करना, सो कहो? ताका समाधान-निश्चयनयकरि ती आत्मा परद्रव्यनित भिन्न और स्वभावनितै अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है ताकी जे न पहिचान, तिनको ऐसे ही कह्या करिए तो वह समझ नाहीं । तब उनको व्यवहार नयकरि शरीरादिक परद्रव्यनिकी सापेक्षकरि नर, नारक, पृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किए। तब मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार लिएं वाकै जीवकी पहिचानि भई। अथवा अभेद वस्तु विष भेद उपजाय ज्ञानदर्शनादि गुरणपर्यायरूप जीवके विशेष किए, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है, इत्यादि प्रकार लिएं वाकै जीवकी पहिचान भई । बहुरि निश्चयनयकरि वीतरागभाव मोक्षमार्ग है ताकी जे न पहिचान, तिनिको ऐसे ही कह्या करिए, तो वै समझे नाही। तब उनको व्यवहारनय करि तत्त्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक परद्रव्यका निमित्त मेटनेंकी सापेक्ष करि व्रत, शील, संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष दिखाए, तब वाकै वीतराग भावकी पहिचान भई । याही प्रकार अन्यत्र भी व्यवहार विना निश्चयका उपदेश न होना जानना । बहुरि यहाँ व्यवहार करि नर, नारकादि पर्याय ही कौ जीव कह्या, सो पर्याय ही को जीव न मानि लैना । पर्याय तो जीव पुद्गलका संयोगरूप है। तहाँ निश्चयकरि जीव जुदा है, ताही को जीव मानना । जीवका संयोग तै शरीरादिकको भी उपचारकरि जीव कहा, सो कहनेमात्र ही है। परमार्थते शरीरादिक जीव होते नाही। ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि अभेद आत्मा विष ज्ञानदर्शनादि भेद किए, सो तिनों भेदरूप ही न मानि लैन । भेद तो समझावनेके अर्थ हैं । निश्चय करि आत्मा अभेद ही है । तिसही को जीव वस्तु मानना । सज्ञा सख्यादि करि भेद कहे, सो कहने मात्र ही है। परमार्थ तै जुदे जुदे है नाही । ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि परद्रव्यका निमित्त मेटनेकी अपेक्षा व्रत शील संयमादिककी मोक्षमार्ग कह्या । सो इन ही कौं मोक्षमार्ग न मानि लेना ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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