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________________ अध्याय १ सूत्र ७ ४१ स्वरूप है इसीप्रकार रत्नत्रय जीवसे भिन्न है ऐसा ज्ञान करना सो पर्यायार्थिक नयका स्वरूप है । रत्नत्रयमें अभेद पूर्वक प्रवृत्ति होना सो निश्चय नयसे मोक्षमार्ग है तथा भेद पूर्वक प्रवृत्ति होना सो व्यवहार नयसे मोक्षमार्ग है । निश्चय रत्नत्रयके समर्थन करनेका यह मतलब है कि जो भेद प्रवृत्ति है सो व्यवहार रत्नत्रय है और जो अभेद प्रवृत्ति है सो निश्चय रत्नत्रय है । (२६) बडे सूत्रका सिद्धान्त- हे जीव ! पहले यह निश्चय कर कि तुझे धर्म करना है या नहीं । यदि धर्म करना हो तो 'परके श्राश्रयसे मेरा धर्म नही है । ऐसी श्रद्धा द्वारा पराश्रित अभिप्रायको दूर कर । परसे जो जो अपनेमें होना माना है उस मान्यताको यथार्थ प्रतीतिके द्वारा जला दे ! यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि जिसप्रकार सात ( पुण्य पाप सहित नव ) तत्त्वोंको जानकर उनमेसे जीवका ही आश्रय करना भूतार्थ है उसी प्रकार अधिगमके उपाय जो प्रमाण, नय, निक्षेपोंको जानकर उनमेसे शुद्धनयके विषयरूप जीवका ही आश्रय करना भूतार्थ है और यही सम्यग्दर्शन है ॥ ६ ॥ 1 निश्चय सम्यग्दर्शनादि जाननेके अमुख्य (अप्रधान) उपाय - निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ अर्थ - [ निर्देश स्वामित्व साधन अधिकरण स्थिति विधानतः ] निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानसे भी सम्यग्दर्शनादि तथा जीवादिक तत्त्वोंका अधिगम होता है । टीका १ - निर्देश - वस्तु स्वरूपके कथनको निर्देश कहते हैं । २ - स्वामित्व - वस्तुके अधिकारीपनको स्वामित्व कहते है । ३ - साधन - वस्तु की उत्पत्ति के काररणको साधन कहते है | ६
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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