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________________ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन सुन्दरीको वस्त्ररहित कर सामने बैठाकर मन्त्र सिद्ध करना एवं अपने मनको तिलमात्र भी चलायमान नहीं करना और ब्रह्मचर्यव्रतमें दृढ रहना श्यामापीठ है । इन चारो पीठोका उपयोग मन्त्र-सिद्धिके लिए किया जाता है। किन्तु णमोकार मन्त्रकी साधनाके लिए इस प्रकारके पीठोकी आवश्यकता नहीं है। यह तो कहीं भी और किसी भी स्थितिमें सिद्ध किया जा सकता है। उपर्युक्य मन्त्र-शास्त्रके सक्षिप्त विश्लेषण और विवेचनका निष्कर्ष यह है कि मन्त्रोके बीजाक्षर, सन्निविष्ट ध्वनियोके रूप विधानमें उपयोगी लिंग और तत्त्वोका विधान एव मन्त्रके अन्तिम भागमें प्रयुक्त होनेवाला पल्लव-अन्तिम ध्वनिसमूहका मूलस्रोत णमोकार मन्त्र है। जिस प्रकार समुद्रका जल नवीन घडेमे भर देनेपर नवीन प्रतीत होने लगता है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्ररूपी समुद्र में से कुछ ध्वनियोको निकालकर मन्त्रोका सृजन हुआ है। "सिद्धो वर्णसमाम्नाय' नियम बतलाता है कि वर्गों का समूह अनादि है। णमोकार मन्त्रमें कण्ठ, तालु मूर्धन्य, अन्तस्य, काम, उपन्मानीय, वत्स्य॑ आदि मभी ध्वनियोके बीज विद्यमान हैं। बीजाक्षर मन्त्रोके प्राण है। ये बीजाक्षर ही स्वयं इस बातको प्रकट करते हैं कि इनको उत्पत्ति कहीसे हुई है। बीजकोशमें बताया गया है कि ॐ वीज समस्त णमोकार मन्त्रसे, होंको उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके प्रयमपदसे, श्रीको उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके द्वितीयपदसे, क्षी और क्ष्वीको उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके प्रथम, द्वितीय और तृनीय पदोसे, म्लोंकी उत्पत्ति प्रयमपदमें प्रतिपादित तीर्थंकरोकी यक्षिणियोंसे, अत्यन्त शक्तिशाली सकल मन्त्रोमें व्याप्त 'ह' की उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके प्रथम पदसे, द्रां द्रींको उत्पत्ति उक्त मन्त्रके चतुर्थ और पचमपदसे हुई है। ह्रा ह्रीं है. ह्रीं ह्रः ये वीजाक्षर प्रथम पदसे, क्षा क्षी सू दे क्ष क्षो क्ष वीजाक्षर प्रथम, द्वितीय और पचमपदसे निष्पन्न है। णमोकार मन्त्रकल्प, भक्तामर यन्त्र-मन्त्र, कल्याणमन्दिर यन्त्र-मन्त्र, यन्त्र-मन्त्र सग्रह, पद्मावतो मन्त्र कल्प आदि मान्त्रिक ग्रन्योके अवलोकनसे पता लगता है कि समस्त मन्त्रोंके रूप
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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