SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन करता है, तैलमर्दन, उबटन, साबुन आदि विभिन्न प्रकारके पदार्थों द्वारा अपने शरीरको स्वच्छ करता है । इस प्रकार अहर्निश राग द्वेषकी अनात्मिक वैभाविक भावनाओके कारण मानव अशान्तिका अनुभव करता रहता है। जिस प्रकार रोगी अवस्था और उसके निदान के मालूम हो जानेपर रोगी रोगसे निवृत्ति प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार साधक ससाररूपी रोगका निदान और उसकी अवस्थाको जानकर उससे छूटने का प्रयत्न करता है । सासारिक दुखोका मूल कारण प्रगाढ़ राग-द्वेष है, जिन्हें शास्त्रीय परिभाषामे मिथ्यात्व कहा जा सकता है । आत्माके अस्तित्व और स्वरूपमे विश्वास न कर अतत्त्वरूप - राग-द्वेषरूप श्रद्धा करनेसे मनुष्यको स्वपरका विवेक नही रहता है, जड शरीरको आत्मा समझ लेता है तथा स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, ऐश्वर्यमे रागके कारण लिप्त हो जाता है, इन्हे अपना समझकर इनके सद्भाव और अभावमे हर्ष - विषाद उत्पन्न करता है | आत्माके स्वाभाविक सुखको भूलकर संसारके पदार्थों द्वारा सुख प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है। शरीरसे भिन्न ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोगमय अखण्ड अविनाशी जरा मरणरहित समस्त पदार्थोंके ज्ञाता द्रष्टा आत्माको विषय कषाययुक्त शरीरमल समझने लगता है । मिथ्यात्व के कारण मनुष्यकी बुद्धि भ्रममय रहती है । अत इन्द्रियोको प्रिय लगनेवाले पुद्गल पदार्थों के निमित्तसे उत्पन्न सुखको जो कि परपदार्थ के संयोगकाल तक - क्षण-भर पर्यन्त रहनेवाला होता है, वास्तविक समझता है। मिथ्यात्व के कारण यह जीव शरीर के जन्मको अपना जन्म और शरीर के नाशको अपना मरण मानता है । राग-द्वेषादि जो स्पष्टरूपसे दुख देनेवाले हैं, उनका ही सेवन करता हुआ मिथ्यादृष्टि आनन्दका अनुभव करता है। अपने शुद्ध स्वरूपको भूलकर शुभ कर्मोंके बन्धके फलकी प्राप्तिमे हर्प और अशुभ कर्मोंके बन्धकी फल प्राप्तिके समय दुःख मानता है । आत्माके हित के कारण जो वैराग्य और ज्ञान हैं, उन्हें मिथ्यादृष्टि कष्टदायक मानता है । आत्मशक्तिको भूलकर दिन-रात विषयेच्छा की पूर्ति में सुखानुभव करना तथा f
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy