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________________ १६२ मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन ११७व भंग हुआ । अर्थात् ' णमो सिद्धाणं' यह पद २, ७, १२वीं, १७वाँ, ११७व भग है । इसी प्रकार नष्टोद्दिष्टके गरिणत किये जाते हैं । इन गरिणतोंके द्वारा भी मनको एकाग्र किया जाता है तथा विभिन्न क्रमों द्वारा णमोकार मन्त्रके जाप द्वारा ध्यानकी सिद्धि की जाती है । यह पदस्थ ध्यानके अन्तर्गत है तथा पदस्थध्यानकी पूर्णता इस महामन्त्रकी उपर्युक्त जाप विधिके द्वारा सम्पन्न होती है । साधक इस महामन्त्रके उक्त क्रमसे जाप करनेपर सहस्रो पापोंका नाश करता है । आत्माके मोह और क्षोभको उक्त भगजाल द्वारा णमोकार मन्त्रके जापसे दूर किया जाता है । मानव जीवनको सुव्यवस्थित रूपसे यापन करने तथा इस अमूल्य मानवशरीर द्वारा चिरस चित कर्मकालिमाको दूर करनेका मार्ग बतलाना आचारशास्त्रका विषय है । आचारशास्त्र जीवनके आचारशास्त्र और विकासके लिए विधानका प्रतिपादन करता है, णमोकार मन्त्र यह आबालवृद्ध सभीके जीवनको सुखी बनानेवाले नियमोंका निर्धारण कर वैयक्तिक और सामाजिक जीवनको व्यवस्थित वनाता है । यो तो आचार शब्दका अर्थ इतना व्यापक है कि मनुष्यका सोचना, बोलना, करना आदि सभी क्रियाएं इसमें परिगणित हो जाती है | अभिप्राय यह है कि मनुष्यकी प्रत्येक प्रवृत्ति और निवृत्तिको आचार कहा जाता है । प्रवृत्तिका अर्थ है, इच्छापूर्वक किसी काममे लगना और निवृत्तिका अर्थ है, प्रवृत्तिको रोकना । प्रवृत्ति अच्छी और बुरी दोनो प्रकारकी होती है । मन, वचन और कायके द्वारा प्रवृत्ति सम्पन्न की जाती है। अच्छा सोचना, अच्छे वचन बोलना, अच्छे कार्य करना, मन, वचन, कायकी सत्प्रवृत्ति और बुरा सोचना, बुरे वचन बोलना, बुरे कार्य करना असत्प्रवृत्ति है । अनादिकालीन कर्मसंस्कारोंके कारण जीव वास्तविक स्वभावको भूले हुए हैं, अतः यह विषय वासनाजन्य सुखको ही वास्तविक सुख समझ
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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