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________________ मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १३३ उत्पत्ति करती हैं, जिससे जीव निरन्तर ससार परिभ्रमण करता रहता है । यत समस्त अनर्थोंका मूल राग-द्वेषका द्वन्द्व है। योग - मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं । योगके द्वारा ही कर्मोका प्रास्रव होता है। शुभ योगके रहनेसे पुण्यास्रव और अशुभ योगके रहनेसे पापास्रव होता है। कर्मों के आनेके साधन मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग हैं । इन पांचो प्रत्ययोंको जैसे-जैसे घटाते जाते हैं, वैसे-वैसे कर्मोंका आस्रव कम होता जाता है। आसवको गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे रोका जा सकता है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोकना गुप्ति, प्रमादका त्याग करना समिति, आत्मस्वरूपमे स्थिर होना धर्म, वैराग्य उत्पन्न करनेके साधन ससार तथा यात्माके स्वरूप और सम्बन्धका विचार करना अनुप्रेक्षा, आयी हुई विपत्तियोको धैर्यपूर्वक सहना परीपहजय एव आत्मस्वरूपमें विचरण करना चारित्र है। इस प्रकार कर्मो के आनेके हेतुओको रोकने, जिससे नवीन कर्मोका बन्ध न हो और पुरातन सचित कर्मों को निर्जरा-द्वारा क्षीण कर देनेसे सहजमे निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है, कम-सिद्धान्त आत्माके विकासका उल्लेख फरते हुए कहता है कि गुणस्थान क्रमसे कर्मवन्ध जितना क्षीण होता जाता है उतनी ही आत्मा उत्तरोत्तर विकसित होती जाती है। आत्माकी उत्तरोत्तर विकसित होनेवाली विशुद्ध परिणतिका नाम गुणस्थान है। ____ आगममे बताया गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि गुणोकी शुद्धि तथा अशुद्धिके तरतम भावसे होनेवाले जीवके भिन्न-भिन्न स्वरूपोको गुणस्थान कहा गया है। अथवा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके औदयिक आदि जिन भावोके द्वारा जीव पहचाना जाता है, वे माव गुणस्थान हैं । असल बात यह है कि मात्माका वास्तविक रूप शुद्ध चेतन और पूर्ण आनन्दमय है । जवतक मात्माके पर तीन कर्मावरणके घने बादलोकी घटा छायी रहती है, तबतक उसका वास्तविक रूप दिखलाई नहीं
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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