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________________ १०४ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन है । रागी जीव कर्मोको बांधता है और वीतरागो कर्मोसे छूटता है । अतः राग और द्वेपको प्रवृत्तिको इन्द्रियनिग्रह एव मनोनिग्रह आत्ममावनाके द्वारा दूर करना चाहिए । कहा गया है - रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते । जीवो जिनोपदेशोऽयं समासाद् वन्धमोक्षयोः ।। यन्त्र रागः पदं धत्ते द्वेषस्तनैति निश्चय. । उमावेतो समालम्व्य विक्राम्यत्यधिकं मनः ।। रागद्वेषविषोधानं मोहबीजं जिनमतम् । मत स एव नि.शेषदोषसेनानरेश्वर ॥ रागादिवैरिण क्रूरान्मोहभूपेन्द्रपालितान् । निकृत्य शमशास्त्रेण मोक्षमार्ग निरूपयः ।। -ज्ञानार्णव प्र० २३, श्लो० १, २५, ५०, ३७ अर्थात् - अनादिसे लगे हुए राग-द्वेष ही ससारके कारण है, जहाँ राग-द्वेष हैं, वहां नियमत. कर्मवन्य होता है। वीतरागताके प्राप्त होते ही कर्मका बत्व रुक जाता है और कर्मोकी निर्जरा होने लगती है। जहां राग रहता है वहीं उसका अविनाभावी द्वेप भी अवश्य रहता है। अतः इन दोनोंका अवलम्बन करके मनमें नाना प्रकारके विकार उत्पन्न होते है। राग-द्वेषरूपी विषवनका मोह बीज है, अत समस्त विषय-कपायोकी सेनाका मोह हो राजा है। यही संसारमें उत्पन्न हुआ दावानल है तथा अत्यन्त दृढ कर्मवन्वनका हेतु है। यह संसारी प्राणी मोह-निद्राके कारण हो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूपी पिशाचोके अधीन होता है । इमी मोहको ज्वालासे अपने ज्ञानादिको भस्म करता है । मोहरूपी राजाके द्वारा पालित राग-द्वेषरूपो शत्रुओंको नष्ट कर मोक्षमार्गका अवलम्बन लेना चाहिए। राग, द्वेप, मोहरूप त्रिपुरको ध्यानरूपी अग्निद्वारा भस्म करना चाहिए।
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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