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________________ ३५ संशयात्मा विनश्यति मनुष्य के जीवन मे धैर्य का बहुत महत्त्व है । इसीलिए कहा जाता हे - धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय - यदि कोई व्यक्ति चाहे कि वह खडे-खडे ही हथेली पर सरसो उगा ले, तो भला यह कैसे सम्भव है ? प्राचीन काल मे चम्पा नगरी मे जिनदत्त और सागरदत्त नामक दो श्रेष्ठपुत्र रहते थे । मित्र थे । बचपन से ही साथ-साथ उठे-बैठे, खेले कूदे और बडे हुए थे । उनका प्रत्येक कार्य एक दूसरे के साथ ही होता था । वे इतने घनिष्ठ थे आपस मे कि उन्हे दो शरीर और एक प्राण भी कहा जा सकता था । एक दिन दोनो मित्र किसो उद्यान मे बैठे वातचीत कर रहे थे और प्रकृति की सुषमा का आनन्द ले रहे थे । उनके हृदय प्रेम और आनन्द के रस मे डूबे हुए थे । उसी समय उन्हे विचार आया कि आज तो वन विहार किया जाय । ऐसे सुन्दर मौसम मे घर मे ही बन्द होकर बैठे रहने मे तो कोई आनन्द नही | उमी नगरी मे उन समय देवदत्ता नामक एक वेश्या भी रहा करती पी। वह परम सुन्दरी थी और मगीत तथा नृत्य कला मे प्रवीण थी । रसिक एवं धनवान नगरवासियो के मन का अपनी कला एवं सोदर्य से रजन करना ही उसका व्यवसाय था । और राजा अजातशत्रु को उस सम्पन्न चम्पानगरी मे रसिको एवं धनपतियो की कोई कमी नही थी । अत देवदत्ता १३६
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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