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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं इस प्रकार कामदेव भगवान महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति का विधिवत पालन करता हुआ कुटुम्बीजनो के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था । एक रात्रि उसके मन मे अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि सासारिक बन्धनो मे अपने को लिप्त रखते हुए कब तक धर्म-प्रजप्ति का विधिवत पालन कर सकूंगा ? अनेक व्यवधान आते ही रहते है | व्रतो का पालन उन स्थितियो कठिन हो जाता है । १८ इस प्रकार का विचार उठते ही वह प्रात काल स्वजन सम्बन्धियो की उपस्थिति मे अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृह-भार सौंपकर पौपधशाला मे जाकर उपासको की प्रतिमा की आराधना मे सलग्न हो गया । गृह-भार से निवृत्त होने के पश्चात् एकाग्रचित्त से वह भगवान महावीर की धर्म- प्रज्ञप्ति मे लीन हो गया । · किन्तु शुभ कार्य मे विघ्न और कठिनाइयाँ भी आती है और वीर एवं साहसी व्यक्ति उन्हे धैर्यपूर्वक पार करते चलते है। एक दिन मध्यरात्रि मे उसके समीप एक मिथ्यादृष्टि देव आया । उसका शरीर वडा भयकर था—गोकलज के समान सिर, मोटे और सूखे केश, मटके की तरह ललाट, नेवले की पूँछ की तरह छितरे हुए भोहो के बाल, छोटे घडे के समान बाहर निकले हुए नेत्र, खण्डित छाज की तरह विचित्र कान, दो चूल्हो की तरह गहरी नासिका, घोडे की पूँछ सदृश मूंछे, ऊँट की तरह ओष्ठ, टूटे हुए शूर्प की तरह जिह्वा, मृदंग के समान कधे, चक्की के पाट जैसी हथेलियाँ, शिला के समान पैर । इतना भयकर वह देव अपना मुख फाडे हुए था, जिह्वा वाहर निकली हुई थी । गिरगिट और चूहो की माला उसने पहिन रखी थी । कानो मे नेवले का कुण्डल था और वक्षस्थल पर सर्पों की माला झूल रही थी । घोर गर्जना और अट्टहास करता हुआ, हाथ मे नगी तलवार लेकर पौपधशाला मे कायोत्सर्ग मे लीन कामदेव को सम्बोधित करते हुए वह कहने लगा "अरे कामदेव । तू किसकी शरण मे बैठा है । किसके ध्यान मे लीन है ? तेरे अन्तिम और बुरे दिन सन्निकट है । तू तो अभागा है । तेरा जन्म चतुर्दशी तिथि को हुआ है । धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की तेरी आकाक्षा कभी
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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