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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “योगी | मेरे रहते कोई अनाय नहीं होगा। यदि तुम्हे इसी कारण भिक्षु बनना पडा है तो अब छोडो यह जीवन ओर चलो मेरे साथ । आज से मै तुम्हारा नाथ वनता हूँ। मै ममर्थ हूँ।" योगी फिर मुस्कराया । इस वार उसकी मुस्कराहट और भी गम्भीर थी। उसमे गूढ अर्थ भी निहित था। सम्राट् ने योगी को केवल मौन रहकर मुस्कराते देखा तो पूछा"क्यो योगी । क्या मेरी बात पर विश्वास नही होता ?" "हाँ, श्रीमान् । विश्वास नहीं होता।" 'क्यो ?" "इसलिए, कि मैं सोचता हूँ कि जो स्वय ही अनाथ है, वह दूसरो का नाथ कैसे हो सकता है ?" योगी की यह स्पष्टोक्ति सुनकर राजा मानो आकाश से भूमि पर आ गिरा । आज तक उसने ऐसी उक्ति कभी सुनी नहीं थी । मगध के सम्राट को अनाथ कहने वाला व्यक्ति आज ही उसने देखा था। किस सिरफिरे का ऐसा साहस हो सकता था ? अपने जीवन से ऊवकर कौन अपनी मृत्यु का आह्वान करना चाहता था ? कुछ क्षण तो राजा अवाक् रह गया। लेकिन तभी उसे विचार आया कि शायद उस तरुण योगी ने उसे पहिचाना नही है । अत वह बोला “योगी | प्रतीत होता है कि तुमने मुझे पहिचाना नहीं, इसीलिए तुम मेरी उपेक्षा कर रहे हो। मैं श्रेणिक हूँ। सम्राट् श्रेणिक । मगध का सम्राट-थेणिक ।" ____ योगी की दिव्य मुस्कान कुछ और मधुर हो गई । उसने उत्तर दिया “राजन् । मगध के प्रतापी सम्राट् को कौन अभागा न जानेगा? । हवाएँ भी जिसका यशोगान करती हुई दिशाओ मे तहराती है, उम श्रेणिक को मै क्यो न जानूंगा? और आपकी उपेक्षा करने का भी मुझे क्या प्रयोजन ?" “तव तुमने मुझे अनाथ कहने का दुस्साहस कैसे किया ?'-कुछअधीर होते हुए श्रेणिक ने पूछा।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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