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________________ सुबुद्धि को बुद्धि ६७ यह प्रक्रिया सात सप्ताह तक चलती रही । इस प्रक्रिया द्वारा वह पानी अन्त मे एक दम शुद्ध, स्वास्थ्यप्रद, सुगन्धित -- एक शब्द मे 'उदक रत्न' हो गया । तब मन्त्री ने उसमे कुछ और भी ऐसे द्रव्य मिलाए जिनसे वह पानी अमृत तुल्य ही हो गया । अव उस जल को लेकर मन्त्री राजा के महल मे गया और राजा के जलगृह के अधिकारी को वह जल राजा के उपयोग हेतु सौप दिया । राजा के भोजन का समय हुआ । उसने जब जल दिया तो बडा आनन्दित हुआ । ऐसा सुस्वादु, अमृत तुल्य जल आज कहाँ से आया ? उसे विस्मय हुआ । साथ के अन्य लोगो ने भी ऐसा उत्तम जल कभी पिया नही था । प्रशसा के पुल वध गए, झडियॉ लग गईं । राजा ने जलगृह के अधिकारी को बुलाकर पूछा"कहाँ से आया आज इतना उत्तम जल ?” 1 “स्वामी ' यह जल आज मुझे मन्त्रिवर ने लाकर दिया है ।" मन्त्री को बुलाया गया । उसके आने पर राजा ने कहा"अरे मन्त्री जी । इतना उत्तम जल कहाँ से ले आए ? यह तो अमृत है । प्रतिदिन तुम मुझे ऐसा जल पीने के लिए क्यो नही देते ?" मन्त्री ने सारी बात साफ-साफ कह दी । वोला - " स्वामी, यह जल तो उसी खाई का है । " राजा तो जैसे आसमान से गिर पडा । उसे अत्यन्त आश्चर्य वल्कि उसे मन्त्री की बात पर विश्वास ही नही हुआ । बोला 1 - ין हुआ I "तुम्हारा दिमाग घूम गया है, मन्त्रिवर । तुम कह क्या रहे हो ? होश मे तो हो ? कहाँ यह अमृत के समान जल और कहाँ वह उस खाई का निकृष्ट गन्दा पानी ? असम्भव है . मन्त्री ने कहा "असम्भव नही, सम्भव है, तथा सत्य है स्वामी | याद कीजिए, मैंने आपसे कहा था कि पुद्गलो का परिणमन होता है । मनुष्य के प्रयत्न से तथा स्वाभाविक रूप से भी । किन्तु आपने मेरी बात पर विचार नही किया था । इसी हेतु मैंने उन पानी को शुद्ध करके आपके समक्ष प्रस्तुत किया है ताकि आप तत्व को समझ सके । "
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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