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________________ ६५ महावीर-वचनामृत समिच्च लोयं समया महेसी, प्रायाणुरक्खी चरमप्पमत्ते ।। (उत्तराध्ययन ४.१०) अर्थ-विवेक कुछ झटपट नहीं प्राप्त किया जाता, उस के लिये कठोर साधना की आवश्यकता है। अतएव महर्षि जन आलस्य त्यागकर, कामभोगों का परित्यागकर, संसार का ठीक-ठीक स्वरूप समझकर, आत्मा की रक्षा करते हुए अप्रमादपूर्वक आचरण करते हैं। १२ उवउझिय मित्तबंधवं, विउलं चैव धणोहसंचयं । मा तं विइयं गवेसए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ (उत्तराध्ययन १०.३०) अर्थ-एक बार विपुल धनराशि तथा मित्र-बान्धवों का त्यागकर फिर उन की ओर मुंह मोड़कर मत देख । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। १३ से सुपडिबद्धं सूवणीयं ति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कमा, एएसु चेव बंभचेरं ति बेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे-बंधपमुक्खो अज्झत्थेव । (प्राचारांग ५.२.१५१) अर्थ-मैने सुना है, अनुभव किया है कि बन्धन से मुक्त होना यह अपने हाथ में है, अतएव हे परमचक्षुमान् पुरुष ! - ज्ञानी पुरुषों से ज्ञान प्राप्त करके, तू पराक्रम कर; इसी का नाम ब्रह्मचर्य है, यह मैं कहता हूँ। १४ चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडि मुंडिणं एयाणि वि न तायंति, दुस्सील परियागयं (उत्तराध्ययन ५.२१)
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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