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________________ उपसंहार ६१ पुरुष ने उत्तर दिया, "हे प्रभो । इन नियमो का पालन तो में बचपन से करता आया हूँ ।" इस पर ईसामसीह ने उत्तर दिया कि अच्छा, यदि तू निर्दोष होना चाहे तो जा अपनी सब सपत्ति बेचकर उस से जो द्रव्य प्राप्त हो उसे गरीबो को बाट दे-- ऐसा करने से तुझे दिव्य खजाने की प्राप्ति होगी, उस के बाद तू फिर मेरा अनुयायी बनना । कितना उच्च उपदेश है । इमी परम त्याग की शिक्षा हमे महात्मा महावीर ने दी थी। उस महात्मा के उपदेश हमारे सामने हैं, हम चाहे तो उन्हे अपने जीवन में उतारकर दुनिया की काया पलट कर सकते है । परन्तु यह काम सहज नही है । उस के लिये हमे अपना हृदय विशाल बनाना होगा, हमे अपने आपको मनुष्य समझना पड़ेगा, हम ने जो छोटे-छोटे सकीर्ण दायरे बना रक्खे है उन से ऊपर उठना होगा और उस के लिये घोर पुरुषार्थ करना होगा । महाकवि रवीन्द्र के शब्दो में, अपनी माँ की गोद से निकलकर हमें देश-देशान्तर घूमना पडेगा, वहाँ अपने योग्य स्थान की खोज करनी पडेगी, पद-पद पर छोटी छोटी अटकानेवाली रस्सियो ने हमे बाँधकर जो 'भलामानुस' बना रक्खा है, उन्हे तोडना पडेगा, अपने प्राणो पर खेलकर, दुःख सहकर अच्छे और बुरे लोगो के साथ सग्राम करना होगा, गृह और लक्ष्मी का परित्यागकर हमे कूच कर देना पडेगा, तथा पुण्य-पाप, सुख-दुख और पतन - उत्थान मे हमे मनुष्य बनना होगा, तभी जाकर हम अपने ध्येय तक पहुँच सकेगे । १०६ १०६ बंगमस्ता पुन्य पापे दूःखे सुखे पतने उत्थाने मानुष हइते दाश्रो तोमार सन्ताने हे स्नेहार्त बंगभूमि ! तव गृहक्रोडे चिरशि करे धार राखियो ना घरे । देशदेशांतर माझे जार जेथा स्थान खूँजिया लइते दानो करिया सन्धान
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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