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________________ दीक्षा के पश्चात्--घोर उपसर्ग की बात है महावीर खड़े होकर ध्यान कर रहे थे, इतने में वहाँ एक ग्वाला आया और अपने बैलों को छोड़कर चला गया। जब वह वापिस लौटकर प्राया तो उस ने देखा बैल ग़ायब हैं। ग्वाले ने महावीर से पूछा, परन्तु महावीर मौनव्रत धारण किये हुए थे अतएव उन्हों ने कोई उत्तर नहीं दिया। इस पर ग्वाले को अत्यत क्रोध आया और उस ने उन के कानों मे लकड़ी की पच्चर ठोक दी। इस भयंकर कष्ट मे महावीर कई दिन तक घूमते रहे ! शास्त्रों में कहा है, महावीर के कष्ट देखकर एक बार इन्द्र ने महावीर से कहा, "भगवन् ! यदि आप की आज्ञा हो तो मै आप की सेवा मे रहकर आप का कष्ट निवारण करूँ ?” परन्तु महावीर ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया कि जो दूसरों के ऊपर निर्भर रहता है वह कभी अपना और दूसरों का कल्याण नही कर सकता। बीमार पड़ने पर महावीर चिकित्सा न कराते थे; उन्हों ने विरेचन, वमन, विलेपन, स्नान, दन्तप्रक्षालन आदि का त्याग किया था। शिशिर ऋतु मे छाया मे, तथा ग्रीष्म मे उकड़ें बैठकर वे सूर्य के सामने मुंह करके तप करते थे। देह धारण के लिये वे चावल, मोथ (मंथु), कुलथी (कुल्माष) आदि रूक्ष आहार करते थे। बहुत करके वे उपवास करते और एक एक महीने तक पानी नही पीते थे । कभी वे दो उपवास के बाद, कभी तीन, कभी चार और कभी पाँच उपवास के बाद आहार लेते थे । ग्राम अथवा नगर मे प्रविष्ट होकर महावीर दूसरों को लिये बनाये हुए आहार की यत्नाचार से खोज करते थे। भिक्षा के लिये जाते हुए मार्ग में भूखे, प्यासे कौए आदि पक्षियों को देखकर तथा ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चाडाल, बिलाड़ी और कुत्ते को देखकर वे वहाँ से धीरे से खिसक जाते और अन्यत्र जाकर दूसरों को कष्ट पहुँचाये बिना आहार ग्रहण करते थे। वे भीगा हुआ, शुष्क अथवा ठंडा पाहार लेते थे, बहुत दिन की रक्खी हुई कुलथी, बासी गोरस अथवा गेहूँ की रोटी (बुक्कस) तथा निस्सार धान्य (पुलाक) ग्रहण करते थे, तथा यदि इन में से कुछ भी न मिलता तो
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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