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________________ करताथा । और मिथ्याती दुष्टजीवोंसे मध्यस्थ ( उदासीन) भाव रखता था। मैत्री 1 आदिक चारों भावनाओंमें लीन हुए उस मुनिके स्वममें भी राग द्वेष निवास नहीं कर Me सके । दर्शनविशुद्धि आदि गुणोंयें लीन हुआ वह मुनि मनवचन कायकी शुद्धिसे तीर्थ-11811 ३ करकी संपदाको देनेवाली इन सोलह भावनाओंको विचारता हुआ, जिनको अब कहते हैं। ___ उन सोलह भावनाओंमेंसे पहली दर्शनविशुद्धिके लिये शंकादि पच्चीस दोषोंको त्या-16 गकर निःशंकादि आठ गुणोंको स्वीकार करता हुआ। जिनेन्द्र भगवानकर कहे हुए मूक्ष्म तत्त्वोंके विचारमें प्रमाणीक पुरुषसे शंकाको निवारण करके निःशंकित ' अंगका पालन करता हुआ। तपसे इस लोक और परलोकमें लक्ष्मी तथा विषयभोगोंके सुख नहीं || चाहे उनको नरकके कारण समझ उनकी इच्छा का त्याग करना ऐसे निकांक्षित । अंगको वह धारण करता हुआ। रत्नत्रयादि गुणोंवाले योगियोंके शरीरमें मैल व रोग १४ देखकर मनवचन कायसे ग्लानि नहीं करना ऐसे निर्विचिकित्सा' अंगको वह पालता हुआ। वह मुनि देव शास्त्र गुरु और धर्मकी ज्ञानरूपी नेत्रसे परीक्षाकर मूढताको छोड़ " ' अमूढत्व ' अंगको स्वीकार करता हुआ। निर्दोष जैनशासनमें अज्ञानी असमर्थ पुरुपोंके संबंधसे प्राप्त हुए दोपोंको छुपाना ऐसे 1 ' उपगृहन ' गुणको पालता हुआ । दर्शन तप चारित्रसे चलायमान हुए जीवोंको उपदे - m - -
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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