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________________ म. वी. ॥३२॥ उसके बाद वह मुनि तपसे उपार्जन किये पुण्यके उदयसे सहस्रार नामके वारखें स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामका महान देव हुआ। वहां उपपाद (उत्पत्ति ) शय्यामें थोड़ी देर में | सत्र यौवन अवस्था पाकर उसीसमय उत्पन्न हुए अवधिज्ञान से पूर्वजन्म में किये तपका यह सब फल जानता हुआ । वह देव साक्षात् तपका फल देखनेसे धर्ममें लीन हुआ उस धर्मकी प्राप्ति के लिये फिर भी रत्नमयी जिन प्रतिमाओंके दर्शन करनेको गया । वहां पर अपने परिवार के साथ श्रीजिनवित्रका पूजन अतिहर्षसे पापके नाश करने के लिये करता हुआ | इच्छामात्र से प्राप्त हुए जलादि अष्टद्रव्यसे चैत्यवृक्षोंके नीचे विराजमान अर्हतकी प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ वह देव मध्यलोकके अकृत्रिम चैत्यालयोंकी पूजा करनेके लिये नंदीश्वरादि द्वीपों में जाकर जिन प्रतिमाओंकी पूजा अतिभक्तिसे करता हुआ । और तीर्थकर व मुनीश्वरों की वंदना करके अपने स्थानको जाता हुआ । वह देव अपने पुण्य से प्राप्त हुई लक्ष्मी अप्सरा विमानादि विभूतिको ग्रहण करता हुआ इंन्द्रियों को तृप्त करनेवाले महान भोगोंको भोगता हुआ । अठारह सागरकी आयु तथा टिमकार रहित सात धातु वर्जित साढे तीन हाथका दिव्य शरीर मिला । वह देव अठारह हजार वर्ष बीत जानेपर कंठसे झड़नेवाले अमृ पु. भा. अ. ५ ॥३२॥
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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