SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनाशी शरीरकी ममता त्यागनेसे तथा तप करनेसे मिलता है । तप भी सम्यग्दर्शन पु. भा. ६ ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयके सिवाय दूसरा कोई भी नहीं हो सकता और मोह तथा ।।। ॥२७॥ ( इंद्रियविपयोंसे बढ़कर दूसरा अहित (बुरा) करनेवाला कोई नहीं है। इसलिये ६ हित चाहनेवालोंको शीघ्र ही विषयोंका सुख विपके समान त्यागना चाहिये और १ साररूप रत्नत्रयतप ग्रहण करना चाहिये। ४ बुद्धिमानोंको वह कार्य करना योग्य है कि जिससे इसलोक व परलोकमें सुख तथा १ यश ( भलाई) हो और नहीं करने योग्य वह कार्य है कि जिससे निंद. (बुराई ) दुःख 2 और अनादर हो। इत्यादि मनमें चितवनसे नाश करनेवाले संसार शरीर भोगोमें वैराग्यको प्राप्त होके अपने हितका उद्यम करता हुआ। फिर राज्यका बोझा मट्टीके डलेके समान " , फेंककर ( छोड़कर ) वह राजा तपका भार ग्रहण करनेको घरसे निकलता हुआ और वनमें जाकर अंगपूर्व श्रुतके जाननेवाले श्रुतसागर नामा मुनिके पास जाकर उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर मस्तकसे प्रणाम करता हुआ। फिर वह मोक्षका इच्छुक राजा मन, वचन कायकी शुद्धिसे बाह्य और अंतरग परिग्रहोंको छोड़कर मुक्तिके लिये खुशीसे जिनदीक्षाको धारण करता हुआ । पुनः कर्म-6॥२७॥ १. रूपी पहाड़ोंको नाश करनेके लिये तपरूपी वज्रायुधको धारण कर दुष्ट इंद्रिय मनरूपी
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy