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________________ म. वी. ॥२५॥ 200 उस स्वर्गमें अपने अवधिज्ञानसे पूर्व किये हुए तपका फल जानकर धर्ममें दृढ चित्त करके फिर भी धर्मकी सिद्धिके लिये तीन लोकमें स्थित जिनालयोंको तथा अर्हत गणधर मुनियोंको पूजकर व प्रणामकर हमेशा महान पुण्यका उपार्जन करता हुआ | तेरह सागरकी आयु पांच हाथका ऊंचा शरीर धारण करता हुआ। तेरह हजार वर्ष पीछे हृदयसे झरते हुए अमृतका सेवन करता था । साढे छह महीने बीत जानेपर सुगंधित | श्वास लेता था और नरककी तीसरी पृथ्वीतक उसका अवधिज्ञान तथा विक्रिया थी । सात धातु मल पसीना रहित दिव्य शरीरवाला वह देव सम्यग्दृष्टि शुभ ध्यानमें तथा जिनपूजा में लवलीन रहता था । नाचना गाना मधुर वाजे आदि सुखसामग्रियोंसे रात - | दिन देवियों के महान भोग भोगता हुआ । इस प्रकार सम्यक् दर्शन से शोभायमान चित्तमें शुभभावनाओंका चितवन करता हुआ सुखसमुद्रमें मन देवोंकर सेवित होता हुआ । अथानंतर जंबूद्वीपमें कौशलनामके देशमें सज्जनोंकर भरी हुई अयोध्या नामकी रमणीक नगरी है । शुभके उदयसे वहांका राजा वज्रसेन था और शीलसे शोभायमान शीलवती नामकी उसकी प्यारी रानी थी। उन दोनों के वह देव पुण्यके उदयसे स्वर्ग से चयकर हरिषेण नामका पुत्र हुआ । वह राजा पुत्रजन्मका महान उत्सव करता हुआ । वह हरिषेण कुमारअवस्थामें राजनीतिकी विद्याके साथ जैनसिद्धांतों को पढ़कर धर्मादि पु. भा. अ. ४ ||२५||
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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