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________________ ० को नाशकर और वचनरूपी किरणोंसे मक्षिके मार्गको प्रकाशकर छह दिन कम तीस वर्ष विहार करके फल पुष्यादिकों से शोभायमान चंपानगरके वगीचेमें क्रमसे आये । उस वगीचे में मन वचन काय योगको तथा दिव्य वाणीको रोककर क्रियारहित हुए मोक्षके लिये अघातिया कर्मोंको नाश करनेवाले प्रतिमायोगको धारण करते हुए । अथानंतर देवगति पांच शरीर पांच संघात पांच बंधन तीन आंगोपांग छह संस्थान छह संहनन पांच वर्ण दो गंध पांच रस आठ स्पर्श देवगत्यानुपूर्व्य अगुरुलघु उपघात पर - घात उच्छ्रास दोनों विहायोगतियां अपर्याप्ति प्रत्येक स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ दुर्भग दु:स्वर सुस्वर आदेय अयशस्कीर्ति, असातावेदनीय नीचगोत्र निर्माण ऐसीं मुक्तिको रोकने वाली इन वहत्तर कर्म प्रकृतियोंको अयोगी नामके चौदहवें गुणस्थान में चढकर अपनी शक्तिसे चौथे शुक्ल ध्यानरूपी तलवारसे योधाकी तरह उस गुणस्थानके अंत के दोसमयोंमें से पहले समय में वैरीके समान समझ मारते हुए । उसके बाद आदेय मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्व्यं पांच इंद्रियजाति मनुष्यायु पर्याप्ति त्रस वादर सुभग यशस्कीर्ति सातावेदनीय ऊंचगोत्र तीर्थंकरनाम - इन तेरह कर्म - प्रकृतियोंको उस चौदवें गुणस्थानके अंतके समयमें शुक्लध्यानके प्रभावसे वे महावीर प्रभु नाश करते हुए । उसके बाद वे वीर प्रभु सब कमरूपी वैरियोंको तथा औदारिक 124500
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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