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________________ म. वी. है। चावल आदि सब तरहके अनाज तथा सवको तृप्त करनेवाले सव ऋतुओंके फलसे पु. भा. शनम्र वृक्ष. हो जाते हैं। अ. १९ ॥१४५॥ भगवानके सभामंडपकी सब दिशायें आकाशके समान निर्मल हो जाती हैं मानों l alपापोंसे छूट गई हों । तीर्थकर प्रभुकी यात्राके लिये चारों जातिके देव इंद्रकी आज्ञासे | आपससें एक दूसरेको बुलाते हैं । उस प्रभुके आगे चमकते हुए रत्नोंसे शोभायमान हजार अरोंवाला अंधेरेका नाशक और देवोंसे घेढ़ा हुआ ऐसा धर्मचक्र चलता है । दर्पणको आदिले आठ मंगल द्रव्योंको देव साथ लेते जाते हैं। ये महान् चौदह अतिशय, भक्तिसे देव करते हुए । इस प्रकार दिव्य चौंतीस अतिशयोंसे आठ प्रातिहायोंसे चार अनंतचतुष्टयोंसे तथा अन्य भी अनंत गुणोंसे शोभायमान वे धर्मके स्वामी अनेक देश नगर ग्राम वनोंमें विहार करते करते क्रमसे राज्यग्रही नगरीके वाहर विपुलाचल पर्वत पर पहुँचते हुए ? कैसे हैं प्रभु । जो धर्मोपदेशरूपी अमृतसे बहुत भव्योंको तृप्त करनेवाले, अनेक भव्योंको वस्तुस्वरूप दिखलाकर मोक्षके मार्गमें स्थापन करनेवाले, मिथ्याज्ञानरूपी खोटे मार्गके अंधेरेको अपने वचनरूपी किरणोंसे नाश करनेवाले, रत्नत्रयस्वरूप मोक्षके I/मार्गको अच्छीतरह प्रगट करनेवाले, कल्पवृक्षकी तरह सम्यक्त्वज्ञान चारित्र तप दीक्षारूपी॥११५ इष्ट चिंतामणि रत्न भव्योंको देनेवाले और सब संघ तथा देवोंसे वेष्टित (वेढे हुए) हैं। लन्डन्न्मन्सस
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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