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________________ चंचल चित्त हुए विनयरहित जैन शास्त्रोंको वांचते हैं, धर्म सिद्धांत तत्त्वार्थों को खोटी युक्तियोंसे दूसरों को समझाते हैं वे मूर्ख ज्ञानावरण कर्मके फलोदयसे वाणीरहित हुए गूंगे होते हैं । जो अपनी इच्छा से हिंसादि पांच पापोंमें प्रवर्तते हैं, श्रीजिनेंद्र देवकर कहे हुए | पदार्थोंको मतवालोंकी तरह ग्रहण करते हैं । देव शास्त्र गुरु धर्म चाहें सच्चे हों या झूठे हाँ सबको समान समझकर पूजते हैं वे मतिज्ञानावरण कर्मके उदयसे विकलेंद्रिय होते हैं। जो कुबुद्धिसे विपयरूपी मांस के लोभसे सातों खोटे व्यसनों को सेवन करते हैं वे मूर्ख खोटी गतिमें जाते हैं । जो व्यसनी मिथ्यादृष्टि पुरुषोंसे मित्रता करते हैं और साधुओंसे दूर रहते हैं वे | पापी नरकादिगतियों में भ्रमणकर नरकादि गतिके लिये दुर्व्यसनोंमें आसक्त ( लीन ) हुए अत्यंत पाप उपार्जन करते हैं । जो अति विपयी तप यम व्रत आदिके विना धर्म रहित हुए अनेक तरहके भोगोंसे हमेशा शरीरको पुष्ट करते हैं, रातमें अन्नादिका आहार करते हैं न खाने योग्य चीजोंको खाते हैं दूसरे जीवोंको विनाकारण सताते हैं वे करुणा | रहित पापी असातावेदनीय कर्मके उदयसे सब रोगों से घिरे हुए अत्यंत रोगकी वेदना ( तकलीफ़ ) से घबराये हुए रोगी होते हैं ।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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