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________________ 28छन्न्न्न्स कार्य करनेवाले, जैनमतकी निंदा करनेवाले, जिनदेव जिनधर्मी और जैनसाधुओंसे । प्रतिकूल, मिथ्याशास्त्रोंके अभ्यासमें लगे हुए, मिथ्यामतके अभिमानसे उद्धत, कुदेव कुगुरुके भक्त, कुकार्य और पापोंकी प्रेरणा करनेवाले, दुर्जन, अत्यंतमोही पाप करनेमें | Kalपंडित ( चतुर ), धर्मसे अलग रहनेवाले, शीलरहित, दुराचरण करनेवाले ( वदचलना हसव व्रतोंसे मुंह मोड़नेवाले कृष्णलेश्यारूप परिणामोंवाले, पांच महापापोंके करने वाले-इत्यादि अन्य भी बहुतसे पापकार्योंके करनेवाले पापी हैं वे सब पापकर्मसे उत्पन्न ? पापके उदयसे रौद्रध्यानसे मरकर पापियोंके घर ऐसे नरकोंमें जाते हैं। HI वे नरक सात हैं, पापकर्मों का फल देने योग्य हैं, सब दुःखोंकी खानि हैं, जहां आधे |निमेपमात्र भी सुख नहीं है । जो जीव मायाचारी ( दगावाज़ ) है, अति कुटिल करोड़ों कार्य करते हैं पराई लक्ष्मी हरलेनेमें लगे हुए हैं, आठों पहर खानेवाले हैं, महान् । मूर्ख, मिथ्याशास्त्रोंके जाननेवाले, पशु और वृक्षोंकी सेवा करनेवाले प्रतिदिन बहुतवार सा स्नान करनेवाले, शुद्ध होनेके लिये कुतीयों में यात्रा करनेवाले, जिनधर्मसे बिलकुल दूर, व्रत शील वगैरहसे रहित, निंदनीक, कपोत लेश्यावाले, हमेशा आर्तध्यान करनेवाले तथा अन्य भी खोटे कार्यों में प्रेम रखनेवाले अज्ञानी जीव अंतमें दुःखी हुए आर्तध्यानसे मरकर तिर्यंचगतिको ( पशुगतिको ) जाते हैं। लन्सन्सलन
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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