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________________ .वी/शब्द करते हुए जिन भगवान के सभामंडपकी भूमिकी तीन प्रदक्षिणा देकर परमपु. भा. भक्तिसे जगद्गुरुको देखनेके लिये सभामंडपमें प्रवेश करते हुए । वह समवरणभूमि । भव्योंको शरणरूप है। फिर वे इंद्र मानस्तंभ महान् चैत्यक्ष और स्तूपोंमें विराजमान जिनेंद्र व सिद्धोंकी विवोंको उत्तम प्रासुक जलादि द्रव्योंसे पूजते हुए । देवोंकर बनाई। गई वहुत उत्तम अनुपम समवसरण रचनाको देखते हुए वे इंद्र हर्पित होके क्रमसे देवोंके। कोठेमें प्रवेश करते हुए। उस सभामंडपमें ऊंची जगह पर स्थित ऊंचे सिंहासनपर विराजमान ऊंचे शरीरशावाले करोड़ों गुणांसे सबमें ऊंचे तेज करके चार मुंहवाले और चमरोंसे हवा किये गये है। ऐसे श्रीमहावीर प्रभुको परमविभूतिके साथ वे इंद्र आखें फाड़कर देखते हुए । उसके । वाद भक्तिके भारसे वशीभूत वे इंद्र देवताओंके साथ भक्तिपूर्वक अपने घुटनोंको पृथ्वीमें 2 रखकर काँकी हानिके लिये प्रभुको नमस्कार करते हुए। इंद्राणी आदि सब देवियं अपनी अप्सराओं सहित खुशीके साथ तीन जगत्के स्वामीको अच्छी तरह प्रणाम करती हुई । जिनेन्द्रको प्रणाम करनेसे इंद्रोंके मुकुटोंकी। किरणांसे जिनेन्द्र के चरणकमल विचित्र प्रभावाले होगये । वे इंद्र प्रभुके गुणोंमें रंजाय-1/॥१०४॥ /मान हुए उत्तम दिव्यसामग्रीसे प्रभुकी पूजा करनेको उद्यमी होते हुए । दैदीप्यमान धारन्यु ज
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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