SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वी. ०३॥ Se क्षीरसमुद्रके जल के समान सफेद चौंसठ चमरोंको हाथमें लिये हुए यक्षोंसे हवा कियागया वह जगत्का गुरु भव्योंके वीचमें अंतरंग वहिरंग लक्ष्मीकर शोभित शरीरवाला सुरूपवान् मोक्षरूपी स्त्रीका उत्तम वर मालूम होता था । उससमय मेघके समान गर्जने वाले साढ़े बारह करोड़ देव दुंदुभि वाजे देवोंकर बहुत जोर से बजाये गये । वे वाजे कर्मरूपी वैरियोंको मानों ललकार रहे हों और जिनोत्सवको जाहिर करनेवाले अनेक | तरह के शब्दों को भव्यों के सामने कर रहे हों ऐसे बजते हुए मालूम पड़ते थे । 1 पु. भा. अ. १५ दिव्य औदारिक शरीर से उठा हुआ दैदीप्यमान प्रभाका मंडल करोड़ सूर्यसे भी अधिक प्रभावाला शोभायमान होरहा था । वह भामंडल वाघाको दूर करनेवाला अनुपम सब प्राणियोंके नेत्रोंको प्रिय यशका पुंज सरीखा वा तेजका खजाना सरीखा मालूम पड़ता था । जिनेन्द्र महावीर के श्रीमुखसे दिव्यध्वनि जो प्रतिदिन निकलती थी वह सबका हित करनेवाली और तत्त्वोंका स्वरूप तथा धर्मका स्वरूप बतलाने वाली थी। जैसे एकसा मेघका जल पात्र के भेदसे वृक्ष वगैर: में अनेक भेदरूप हुआ फलमें भेद करनेवाला होता है उसीतरह भगवानकी दिव्यध्वनि पहले तो अनक्षरी एक स्वरूप ही निकलती है फिर अनेक भाषामयी और अनेक देश में उत्पन्न मनुष्यों के अक्षरमयी, देव ॥१०३॥ तथा पशुओं को धर्मका उपदेश करनेवाली सबके संदेहको दूर करनेवाली हो जाती है।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy