SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ल II । Ill गरमीके दिनोंमे सूर्यकी तेजकिरणोंसे गर्म ऐसी पर्वतकी शिलापर ध्यानरूपी अमृतजलालका छिड़कावे करते हुए ठहरते थे, इत्यादि कायक्लेश तपको शरीरके सुखकी हानिके लिये सेवन करते हुए । इस प्रकार अत्यंत कठिन छह तरहका बाह्य तप पालते हुए। प्रायपश्चित्तादि तपकी आवश्यकता न होनेसे वे महावीरस्वामी प्रमादरहित और जितेंद्री हुए हमनको विकल्परहित करके कायोत्सर्गकर कर्मरूपी वैरियोंका नाश करनेके लिये अपनी । आत्मामें ही ध्यान लगाते हुए । जो ध्यान सवकर्मरूपी वनके जलानेको आगके समान है। और परम आनंदका कारण है । उस आत्मध्यानके प्रभावसे सब आस्रवोंको रोकनेसे संपूर्ण अभ्यंतर तप तो पहले ही हो जाता है । इस प्रकार वे महावीर प्रभु अपनी सामसार्थ्य प्रगट कर बारह उत्तम तपोंको सावधानीसे बहुतकालतक पालते हुए। वे महावीर प्रभु क्षमागुणकरके पृथिवीके समान निश्चल हुए और प्रसन्न स्वभावसे निर्मल जलके समान दीखने लगे। वे स्वामी दुष्टकर्मरूपी वनको जलानेमें जलती हुई आगके समान ही होते हुए और कपाय तथा इंद्रियरूपी वैरियोंको मारनेके लिये दुर्जय शत्रुके समान होते|| साहुए। वे प्रभु धर्मवुद्धिसे महान् धर्मके करनेवाले और इस लोक परलोकमें सुखके समुद्र ऐसे उत्तम क्षमा आदि दस लक्षणोंको सेवन करते हुए। अाल पराक्रमवाले वे वीर प्रभु अपनी शक्तिसे भूख प्यास आदिसे होनेवाली 55A53D म्झन्छन्
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy