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________________ अ. वी. प्रभुको अत्यंत भक्तिसे नमस्कार कर तथा स्वर्गकी पवित्र जलादि द्रव्योंसे पूजकर वैराग्य- पु. भा. हू को उपजानेवाले वचनोंसे प्रार्थना व स्तुति करने लगे । हे देव तुम जगतके स्वामी हौ, ॥७८॥ हूँ गुरुओंके भी महान् गुरु हौ ज्ञानियों में भी महान् ज्ञानी हौ समझदारोंको भी अच्छीतरह ४ समझानेवाले हौ । इसलिए स्वयंवुद्ध और सब पदार्थोके जाननेवाले आपको हम क्या है 2 समझाचें ? क्योंकि आप स्वयं हम भव्यजीवोंको समझ देनेवाले हो इसमें कुछ भी संदेह 8 ॐ नहीं। जैसे प्रकाशमान दीपक पदार्थों का प्रकाश करता है उसीतरह तुम भी सव पदा-12 ६ यौँको संसारमें प्रकाशित करोगे। परंतु हे देव हमारा ऐसा नियोग (फर्ज) ही है आपको संवोधन । ६ करनेमें स्तुतिके वहानसे भक्ति प्रेरणा करती है क्योंकि आप तीन ज्ञान रूपी नेत्रवाले हौ हेय, 1 उपादेयके जाननेवाले हो तुमको कौन शिक्षा देसकता है कोई नहीं। क्या सूर्यको देखने के लिये। है दीपककी जरूरत होती है कभी नहीं । हे देव मोहरूपी वैरीके जीतनेका उद्योग करनेकी है ४ इच्छावाले तुमने अब सज्जनोंका बंधुकार्य किया है क्योंकि हे प्रभो आपसे ही दुर्लभ धर्म रूपी जिहाजको पाकर कितनेही भव्यजीव दुस्तर संसारसमुद्रको तैर सकेंगे। कोई भव्य है जीव आपके धर्मोपदेशसे रत्नत्रयको पाकर उसके फलके ऊंची सर्वार्थासद्धिको जायँगे। है कोई जीव आपकी वचनरूपी किरणोंसे मिथ्याज्ञानरूपी अंधेरेको हटाकर सब ४ पदार्थोको व मोक्षलक्ष्मीको देखेंगे । हे देव बुद्धिमानोंको तुमसे ही सव इष्ट पदार्थोकी सिद्धि ॥७८॥ ? होगी । हे स्वामिन् स्वर्ग मोक्षसुखभी आपके प्रसादसे ही मिलसकेगा।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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