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________________ म. वी. ___ कभी किनरी देवियोंसे अच्छे कंठसे गाये हुए अपने गुणोंको आदरपूर्वक सुनता पु.भा. था । कभी नेत्रोंको प्रिय इंद्रकी अप्सराओंका विचित्र नाच व वहुरूप धारने वाले अ.१० ॥६६॥ देवोंका नाटक देखता हुआ । कभी दिव्य स्वर्गसे लाये गये आभूषण वस्त्र माला वगैरः ६ को देखता हुआ। कभी देवकुमारोंके साथ खुशीसे वहुत जल क्रीडा करता हुआ और है। कभी अपनी इच्छासे वन क्रीड़ा करता हुआ । इत्यादि बहुत क्रीडा विनोदोंसे धर्मात्मा ६ वह कुमार समयको सुखसे बिताता हुआ। B सौधर्म इंद्र भी अपने कल्याणके लिये अनेक तरहके नृत्य गीत वजाना वगैरः स्वर्गकी देवियोंसे कराता हुआ। काव्य वाद्य आदिकी गोष्टी तथा धर्मकी चर्चासे कालको विताता हुआ वह कुमार अद्भुत पुण्यके उदयसे सुख भोगता संता क्रमसे जगत्को । सुख करनेवाली जवान अवस्थाको धारण करता हुआ। तब इसका मस्तक मुकुटसे। इधर्मरूपी पर्वतकी शिखरके समान दीखने लगा। इसका मस्तक गालोंकी कांतिसे ऐसा हैं मालूम पड़ने लगा मानों अष्टमीका चंद्रमा ही हो और भाग्यका खजाना ही हो । इस 'प्रभुके सुंदर भोंहोंके विभ्रमसे शोभित नेत्रकमलोंका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि जिनके १ खुलने मात्रसे जगतके जीव तृप्त हो जाते हैं। ॥६६॥ गीतोंको सुननेवाले इस प्रभुके कान रत्नोंके कुंडलके तेजसे ऐसे शोभायमान कमलहमर कसकसकलसरदस्त
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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