SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - चन्द्रमाकी मुसकरानेरूप निर्मल चांदनीसे मातापिताके मनका सन्तोषरूपी समुद्र वढता हुआ। । क्रमसे बढते हुए श्रीमान् महावीरके मुखरूपी. कमलसे सरस्वतीकी तरह वाणी निकलती हुई । रत्नोंकी पृथ्वीपर धीरे २ गिरते हुए पैरोंके रखनेसे विचरता हुआ वह हावालक आभूषणोंकी तेज किरणोंसे सूर्यके समान मालूम होता था। कोई देव, हाथी घोड़ा वंदर वगैरःका सुंदररूप रखकर तथा अन्य क्रीडाओंसे उसे खेलाते हुए । इत्यादि दूसरी भी वालचेष्टाओंसे कुटुंबियोंको हर्ष उत्पन्न करता हुआ वह बालक अमृतरूप अन्नपानादिकसे कुमार अवस्थाको प्राप्त हुआ। उससमय उस कुमारके जो पहलेका निर्दोष क्षायिक सम्यक्त्व था उससे सव पदार्थोंका अपने आप निश्चय होगया। । उस प्रभुके उसीसमय दिव्यशरीरके साथ २ स्वाभाविक मति श्रुत अवधिज्ञान : वृद्धिको प्राप्त हुए प्रगट होने लगे। उन ज्ञानोंसे सव कलाओंका जानना, सब विद्यायें तथा धर्मरूपी विचार अपने आपही प्रगट होगये इसकारण वह प्रभु मनुष्य तथा हा देवोंका बड़ा गुरु होता हुआ। परंतु इस स्वामीका गुरु व पढ़ानेवाला कोई नहीं था यह / अचंभेकी बात है। आठवें वर्षमें वह देव गृहस्थधर्म पालनेके लिये आपही अपने योग्य वारह व्रतोंको ग्रहण करता हुआ । उस प्रभुका शरीर पसीना रहित, चमकीला, मलमूत्र 22
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy